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प्राकृत साहित्य का इतिहास ___ महापरिज्ञा नामक अध्ययन व्युच्छिन्न है, इसलिये उपलब्ध नहीं है । विमोक्ष अध्ययन में परीषह-सहन, वस्त्रधारी का आचार, वस्त्रत्याग में तप, संलेखना की विधि, समाधिमरण आदि का प्रतिपादन है। परीषह सहन करने का उपदेश देते हुए कहा है कि यदि शीत से कांपते हुए किसी साधु को देखकर कोई गृहस्थ पूछे-'हे आयुष्मन् ! आपको काम तो पीड़ा नहीं देता ?' तो उत्तर में साधु कहता है-'मुझे काम पीड़ा नहीं देता, लेकिन शीत सहन करने की मुझ में शक्ति नहीं है।' ऐसी हालत में यदि गृहस्थ उसके लिये अग्नि जलाकर उसके शरीर को उष्णता पहुँचाना चाहे तो साधु को अग्नि का सेवन करना योग्य नहीं। आहार करने के संबंध में आदेश है कि भिक्षु-भिक्षुणी भोजन करते हुए आहार को वांये जबड़े से दांये जबड़े की ओर, और दांये जबड़े से बांये जबड़े की ओर न ले जायें, बल्कि बिना स्वाद लिये हुए ही उसे निगल जायें । यदि दंशमशक आदि जीव-जन्तु साधु के मांस और रक्त का शोषण करें तो साधु उन्हें रजोहरण आदि द्वारा दूर नं करे । ऐसे समय यही विचार करे कि ये जीव केवल मेरे शरीर को ही हानि पहुँचाते हैं, मेरा स्वतः का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। __ उपधान-श्रुत अध्ययन में महावीर की कठोर साधना का वर्णन है। लाढ़ देश में जब वे वजभूमि और सुब्भभूमि नामक स्थानों में विहार कर रहे थे तो उन्हें अनेक उपसर्ग सहन करने पड़े
लाहिं तस्सुवस्सग्गा बहवे जाणवया लूसिंसु । अह लूहदेसिए भत्ते कुक्कुरा तत्थ हिंसिसु निवइंसु॥ अप्पे जणे निवारेइ लूसणए सुणए दसमाणे ।
छुच्छुकारिंति आहंसु समणं कुक्कुरा दसंतु त्ति ॥ लाढ़ देश में विचरते हुए महावीर ने अनेक उपसर्ग सहे । वहाँ के निवासी उन्हें मारते और दाँतों से काट लेते । आहार