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वड्डमाणविजाकम्प
६७५ इसकी हस्तलिखित प्रति भांडारकर इंस्टिट्यूट पूना में मौजूद है।
वड्ढमाणविज्जाकप्प जिनप्रभसूरि (विक्रम की १४ वीं शताब्दी) ने वर्धमानविद्याकल्प की रचना की है।' वाचक चन्द्रसेन ने इसका उद्धार किया है। इसमें १७ गाथाओं में वर्धमानविद्या का स्तवन है । यहाँ बताया है कि जो २१ बार इसका जाप करके किसी ग्राम में प्रवेश करता है उसका समस्त कार्य सिद्ध होता है।
ज्योतिषसार ज्योतिष का यह ग्रन्थ पूर्व शास्त्रों को देखकर लिखा गया है;२ खासकर हरिभद्र, नारचंद, पद्मप्रभसूरि, जउण, वाराह, लल्ल, पराशर, गर्ग आदि के ग्रन्थों का अवलोकन कर इसकी रचना की गई है। इसके चार भाग हैं। दिनशुद्धि नामक भाग में ४२ गाथायें हैं जिनमें वार, तिथि और नक्षत्रों में सिद्धियोग का प्रतिपादन है। व्यवहारद्वार में ६० गाथायें हैं। इनमें ग्रहों की राशि, स्थिति, उदय, अस्त और वक्र दिन की संख्या का वर्णन है। गणितद्वार में ३८ और लनद्वार में ८ गाथायें हैं।
विवाहपडल (विवाहपटल) विवाहपडल का उल्लेख निशीथविशेषचूर्णी ( १२, पृष्ठ ८५४ साइक्लोस्टाइल प्रति) में मिलता है। यह एक ज्योतिष का ग्रन्थ था जो विवाहवेला के समय में काम में आता था।
१. बृहहीकारकल्पविवरण के साथ डाह्याभाई मोहोकमलाल, अहमदाबाद की ओर से प्रकाशित । प्रकाशन का समय नहीं दिया है।
२. यह ग्रंथ रत्नपरीक्षा, द्रव्यपरीक्षा और धातूत्पत्ति के साथ सिंघी जैन ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहा है ।