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प्राकृत साहित्य का इतिहास
आधार हैं और इन आठ महानिमित्तों द्वारा भूत और भविष्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इनमें अंगविद्या को सर्वश्रेष्ठ बताया है । दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग में महावीर भगवान् ने निमित्तज्ञान का उपदेश दिया था ।
अंगविद्या पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत है । इस ग्रंथ में ६० अध्याय हैं। आरंम्भ में अंगविद्या की प्रशंसा करते हुए उसके द्वारा जयपराजय, आरोग्य, हानि-लाभ, सुख-दुख, जीवन-मरण, सुभिक्षदुर्भिक्ष आदि का ज्ञान होना बताया है। आठवाँ अध्याय ३० पाटलों में विभक्त है। इसमें अनेक आसनों के भेद बताये हैं । नौवें अध्याय में १८६८ गाथाओं में २७० विविध विषयों का प्ररूपण है । यहाँ अनेक प्रकार की शय्या, आसन, यान, कुड्य, खंभ, वृक्ष, वस्त्र, आभूषण, बर्तन, सिक्के आदि का वर्णन है । ग्यारहवें अध्याय में स्थापत्य संबंधी अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का प्ररूपण है । स्थापत्यसंबंधी शब्दों की यहाँ एक लम्बी सूची दी है । उन्नीसवें अध्याय में राजोपजीवी शिल्पी और उनके उपकरणों के संबंध में उल्लेख है । विजयद्वार नामक इक्कीसवें अध्याय में जय-पराजय सम्बन्धी कथन है । बाइसवें अध्याय में उत्तम फलों की सूची दी है। पचीसवें अध्याय में गोत्रों का विशद वर्णन है जो बहुत महत्व का है । छब्बीसवें अध्याय में नामों का वर्णन है । सत्ताइसवें अध्याय में राजा, अमात्य, नायक, आसनस्थ, भाण्डागारिक महाणसिक, गजाध्यक्ष आदि सरकारी अधिकारियों के पदों की सूची दी है। अट्ठाइसवें अध्याय में पेशेवर लोगों की महत्त्वपूर्ण सूची है। नगरविजय नाम के उनतीसवें अध्याय में प्राचीन भारतीय नगरों के सम्बन्ध में बहुत सी सूचनायें मलती हैं । तीसवें अध्याय में आभूषणों का वर्णन है । बत्तीसवें अध्याय
धान्यों और तैंतीसवें अध्याय में वाहनों के नाम गिनाये हैं । छत्तीसवें अध्याय में दोहदसंबंधी विचार है। सैंतीसवें अध्याय में १२ प्रकार के लक्षणों का प्रतिपादन है । चालीसवें अध्याय में भोजन सम्बन्धी विचार है । इकतालीसवें अध्याय में मूतयों