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सिद्धहेमशब्दानुशासन
६४३ व्याकरण अत्यन्त उपयोगी है। यहाँ २० पादों में भापा, विभापा, अपभ्रंश और पैशाची का वर्णन किया है। भाषाओं में महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, आवन्ती और मागधी के नाम गिनाये गये हैं। महाराष्ट्री प्राकृत के नियम आठ पादों में हैं, यह भाग वररुचि के आधार पर लिखा गया है। नौवें पाद में शौरसेनी, दसवें में प्राच्या, ग्यारहवें में आवन्ती और बाह्नीकी तथा बारहवें में मागधी और अर्धमागधी के नियम बताये हैं। अर्धमागधी के संबंध में कहा है कि यह शौरसेनी से दूर न रहनेवाली मागधी ही है । तेरहवें से सोलहवें पाद तक शाकारी, चांडाली, शाबरी, औड़ी, आभीरिका और टक्की नाम की पाँच विभाषाओं का वर्णन है । सतरहवें अठारहवें पाद में नागर, वाचड और उपनागर इन तीन अपभ्रंशों का विवेचन है। उन्नीसवें और बीसवें पाद में पैशाची के नियम बताये हैं। कैकय, शौरसेन और पांचाल ये पैशाची के भेद हैं। इस प्रकार भाषा, विभापा आदि के सब मिलाकर सोलह भेद होते हैं। मार्कण्डेय ने बाचड को सिंध की बोली माना है।
सिद्धहेमशब्दानुशासन (प्राकृतव्याकरण) प्राकृत के पश्चिमी प्रदेश के विद्वानों में आचार्य हेमचन्द्र (सन् १०८८-११७२) का नाम सर्वप्रथम है। उनका प्राकृतव्याकरण सिद्धहेमशब्दानुशासन का आठवाँ अध्याय है । सिद्धराज को अर्पित किये जाने और हेमचन्द्र द्वारा रचित होने के कारण इसे सिद्धहेम कहा गया है । हेमचन्द्र की इस पर प्रकाशिका नाम की' स्वोपज्ञ वृत्ति है। इस पर और भी टीकायें हैं। उदयसौभाग्यगणि ने हेमचन्द्रीय वृत्ति पर हेमप्राकृतवृत्तिढुंढिका नामकी टीका
१. पिशल द्वारा सम्पादित, ईसवी सन् १८७७-८० में हाल्ले आमज़ार से प्रकाशित । पी० एल० वैद्य द्वारा सम्पादित, सन् १९३६ में भंडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट, पूना से प्रकाशित; संशोधित संस्करण १९५८ में प्रकाशित ।