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ફર प्राकृत साहित्य का इतिहास इसमें ग्राम्योक्तियों की बहुलता रहती है । शाबरी मागधी से बनी है। अंगारिक (कोयला जलानेवाले), व्याध तथा नाव और काष्ठ उपजीवी इसका प्रयोग करते हैं। मागधी पात्रों के भेद से आभीरिका, द्राविडिका, औत्कली, वानौकसी और मान्दुरिका नाम की विभापाओं में विभाजित है । आभीरिका शाबरी से सिद्ध होती है। इस विभापा के यहाँ कुछ ही रूप लिये हैं, शेप रूपों को उनके प्रयोगों से जानने का आदेश है। टक्की भाषा जुआरी और धूत्रों के द्वारा बोली जाती थी। शाकारी, औड्री और द्राविडी विभापाओं के संबंध में कहा है कि यद्यपि ये अपभ्रंश में अन्तर्भूत होती हैं, लेकिन यदि नाटक आदि में इनका प्रयोग होता है तो वे अपभ्रंश नहीं कही जातीं। तीसरी शाखा में नागर, अपभ्रंश, वाचड, अपभ्रंश तथा पैशाचिक का विवेचन है। पैशाचिक के दो भेद हैं--एक शुद्ध, दूसरा संकीर्ण | कैकय, शौरसेन पांचाल, गौड, मागध और वाचड पैशाचिक का यहाँ विवेचन किया है।
प्राकृतसर्वस्व प्राकृतसर्वस्व के कर्ता मार्कण्डेय हैं जो उड़ीसा के रहनेवाले थे । मुकुन्ददेव के राज्य में उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की थी।' इनका समय ईसवी सन् की १७वीं शताब्दी है। मार्कण्डेय ने ग्रन्थ के आदि में शाकल्य, भरत, कोहल, वररुचि, भामह, वसन्तराज आदि का नामोल्लेख किया है जिनके ग्रन्थों का अवलोकन कर उन्होंने प्राकृतसर्वस्व की रचना की। यहाँ अनिरुद्धभट्ट, भट्टिकाव्य, भोजदेव, दण्डी, हरिश्चन्द्र, कपिल, पिंगल, राजशेखर, वाक्पतिराज तथा सप्तशती और सेतुबन्ध का उल्लेख है। महाराष्ट्री, शौरसेनी और भागधी के सिवाय प्राकृत की अन्य बोलियों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये यह
। १. भट्टनाथस्वामि द्वारा संपादित, ग्रन्थप्रदर्शिनी, विज़गापट्टम से १९२७ में प्रकाशित ।