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________________ ६३८ प्राकृत साहित्य का इतिहास (ईसवी सन् की सातवीं-आठवीं शताब्दी) कृत मनोरमा, वसंतराजकृत प्राकृतसंजीवनी (ईसवी सन् की १४वीं-१५वीं शताब्दी) तथा सदानन्दकृत सदानन्दा और नारायणविद्याविनोदकृत प्राकृतपाद नाम की टीकायें लिखी गई हैं जिससे इस व्याकरण की लोकप्रियता का अनुमान किया जा सकता है। कंसवहो और उसाणिरुद्ध के रचयिता मलाबार के निवासी रामपाणिवाद ने भी इस पर टीका' लिखी है। केरलानिवासी कृष्णलीलाशुक ने इस के नियमों को समझाने के लिए सिरिचिंधकव्व नाम का काव्य लिखा है। इससे पता लगता है कि प्राकृतप्रकाश का दक्षिण में भी खूब प्रचार हुआ। इस ग्रन्थ में १२ परिच्छेद हैं, इनमें नौ परिच्छेदों में महाराष्ट्री प्राकृत के लक्षणों का वर्णन है, दसवें परिच्छेद में पैशाची और ग्यारहवें में मागधी के लक्षण बताये हैं। ये दोनों परिच्छेद बाद के माने जाते हैं, तथा भामह अथवा अन्य किसी टीकाकार के लिखे हुए बताये जाते हैं। १२वें परिच्छेद में शौरसेनी का विवेचन है, इस पर भामह की टीका नहीं है, इससे यह परिच्छेद भी बाद का जान पड़ता है। प्राकृतसंजीवनी और प्राकृतमंजरी में केवल महाराष्ट्री का ही वर्णन मिलता है। जान पड़ता है ये तीनों परिच्छेद हेमचन्द्र के समय से पहले ही सम्मिलित कर लिये गये थे। शौरसेनी को यहाँ प्रधान प्राकृत बताया है, महाराष्ट्री का उल्लेख नहीं है। इससे यही अनुमान किया जाता है कि वररुचि के समय तक महाराष्ट्री का उत्कर्ष नहीं हुआ था। डाक्टर पी० एल० वैद्य द्वारा पूना ओरिएण्ल सीरीज़ से सन् १९३१ में प्रकाशित । युनिवर्सिटी ऑव कलकत्ता द्वारा सन् १९४३ में प्रकाशित, दिनेशचन्द्र सरकार की 'ग्रामर ऑव द प्राकृत लैंग्वेज' में प्राकृतप्रकाश का अंग्रेजी अनुवाद दिया है। के० पी० त्रिवेदी ने इसे गुजराती अनुवाद के साथ नवसारी से सन् १९५७ में प्रकाशित किया है। १. इस टीका में माथासप्तशती, कर्पूरमंजरी, सेतुबंध और कंसवहो आदि से उद्धरण प्रस्तुत किये गए हैं।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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