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प्राकृतप्रकाश
६३७ रूप संस्कृत को मिला, प्राकृत उससे वंचित रह गई । व्याकरणों में वररुचि का प्राकृतव्याकरण सबसे अधिक व्यवस्थित और प्रामाणिक है। लेकिन इसके सूत्रों से अश्वघोष के नाटक, खरोष्ट्री लिपि के धम्मपद और अर्धमागधी में लिखे हुए जैन आगमों आदि की भाषाओं पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता। अवश्य ही पैशाची भाषा-जिसका कोई भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैके नियमों का उल्लेख यहाँ मिलता है। इससे प्राकृत व्याकरणों की अपूर्णता का ही द्योतन होता है।'
प्राकृतप्रकाश मार्कण्डेय ने अपने प्राकृतसर्वस्व के आरंभ में शाकल्य, भरत और कोहल नाम के प्राकृत व्याकरणकर्ताओं के नाम गिनाये हैं, इससे पता लगता है कि शाकल्य आदि ने भी प्राकृतव्याकरणों की रचना की है जिनसे मार्कण्डेय ने अपनी सामग्री ली है। वर्तमान लेखकों में भरत ने ही सर्वप्रथम प्राकृत भापाओं के सम्बन्ध में विचार किया है।
वररुचि का प्राकृतप्रकाश' उपलब्ध व्याकरणों में सबसे प्राचीन है। इस पर कात्यायन ( ईसवी सन् की छठी-सातवीं शताब्दी) कृत मानी जाने वाली प्राकृतमंजरी और भामह
१. देखिये मनमोहनघोप, कर्पूरमंजरी की भूमिका, पृ. १८ ।
२. डाक्टर सी० कुनहन राजा द्वारा सम्पादित, अडयार लाइब्रेरी, मद्रास द्वारा सन् १९४६ में प्रकाशित; भामह और कात्यायन की वृत्तियों और बंगाली अनुवाद के साथ वसन्तकुमार शर्मा चट्टोपाध्याय द्वारा सम्पादित, सन् १९१४ में कलकत्ता से प्रकाशित। इसका प्रथम संस्करण हर्टफोर्ड से ईसवी सन् १८५४ में छपा था। दूसरा संस्करण कोवेल ने अपनी टिप्पणियों और अनुवाद के साथ भामह की टीका सहित सन् १८६८ में लंदन से प्रकाशित कराया। इसका नया संस्करण रामशास्त्री तैलंग ने सन् १८९९ में बनारस से निकाला। तत्पश्चात् वसंतराज की प्राकृतसंजीवनी और सदानन्द की सदानन्दा नाम की टीकाओं सहित सरस्वतीभवन सीरीज़, बनारस से सन् १९२७ में प्रकाशित । फिर