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प्राकृत साहित्य का इतिहास -जिसमें मन का आंतरिक भाव सरलता को प्राप्त होता है, जो विकल्पों के संघटन आदि और कलंक से मुक्त है, जिसमें एक दूसरे के लिए रस का प्रवाह बहता है, शृङ्गार द्वारा जो वृद्धि को प्राप्त होता है और मनोभव कामदेव से जिसका सार प्राप्त होता है वह प्रेम है। यहाँ कौलधर्म के स्वरूप का व्याख्यान किया गया है
रण्डा चण्डा दिक्खिदा धम्मदारा मज्जं मंसं पिज्जए खज्जए अ | भिक्खा भोज्जं चम्मखंडं च सेज्जा
कोलो धम्मो कस्स णो भादि रम्मो॥ (जवनिकांतर १) -कोई चण्ड रण्डा धर्मेदारा के रूप में दीक्षित की गई है, मद्य का पान किया जाता है और मांस का भक्षण किया जाता है। भिक्षा माँग कर भोजन करते हैं, चर्मखंड पर शयन करते हैं, ऐसा कौलधर्म किसे प्रिय नहीं ?
विलासवती विलासवती प्राकृतसर्वस्व के रचयिता मार्कण्डेय ( ईसवी सन् की लगभग १७वीं शताब्दी) की कृति है। दुर्भाग्य से यह कृति अनुपलब्ध है। विश्वनाथ (१४वीं शताब्दी) के साहित्यदर्पण में विलासवती नाम के एक नाट्य रासक का उल्लेख मिलता है, संभवतः यह कोई दूसरी रचना हो। मार्कण्डेय ने अपने प्राकृतसर्वस्व (५. १३१) में विलासवती की निम्नलिखित गाथा उद्धृत की है
पाणाअ गओ भमरो लब्भइ दुक्खं गइंदेसु । सुहाअ रज किर होइ रणो॥
चन्दलेहा चन्दलेहा के कर्ता रुद्रदास पारशव वंश में उत्पन्न हुए थे तथा रुद्र और श्रीकण्ठ के शिष्य थे। ये कालिकट के रहनेवाले थे; सन् १६६० के आसपास इन्होंने चन्दलेहा की रचना की
पापा