________________
नाटक
नौवाँ अध्याय
संस्कृत नाटकों में प्राकृत ( ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी से लेकर १८ वीं शताब्दी तक)
नाटकों में प्राकृतों के रूप प्राकृत भाषाओं का प्रथम नाटकीय प्रयोग संस्कृत नाटकों में उपलब्ध होता है । भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र (१७. ३१.४३) में धीरोदात्त और धीरप्रशान्त नायक, राजपत्नी, गणिका और श्रोत्रिय ब्राह्मण आदि के लिये संस्कृत, तथा श्रमण, तपस्वी, भिक्षु, चक्रधर, भागवत, तापस, उन्मत्त, बाल, नीच ग्रहों से पीड़ित व्यक्ति, स्त्री, नीच जाति और नपुंसकों के लिये प्राकृत बोलने का निर्देश किया है । यहाँ भिन्न-भिन्न पात्रों के लिये भिन्न-भिन्न प्राकृत भाषायें बोले जाने का उल्लेख है। उदाहरण के लिये, नायिका और उसकी सखियों द्वारा शौरसेनी, विदूषक आदि द्वारा प्राच्या (पूर्वीय शौरसेनी), धूर्तों द्वारा अवन्तिजा ( उज्जैनी में बोली जाने वाली शौरसेनी) चेट, राजपुत्र और श्रेष्ठियों द्वारा अर्धमागधी', राजा के अन्तःपुर में रहनेवालों, सुरङ्ग खोदनेवालों, सेंध लगाने वालों, अश्वरक्षकों और आपत्तिग्रस्त नायकों द्वारा मागधी, योधा, नगर-रक्षक आदि और जुआरियों द्वारा दाक्षिणात्या, तथा उदीच्य
१. मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, शौरसेनी, अर्धमागधी, बाह्रीका, और दाक्षिणात्या नाम की सात भाषायें यहाँ गिनाई हैं (१७. ४८)।
२. डाक्टर कीथ के अनुसार (द संस्कृत ड्रामा, पृ० ३३६) अश्वघोष और सम्भवतः भास के कर्णभार नाटक को छोड़कर अन्यत्र इसका प्रयोग दिखाई नहीं देता।