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६०८ प्राकृत साहित्य का इतिहास
पहले सर्ग में अकूर गोकुल पहुँच कर कृष्ण और बलराम को कंस का सन्देश देता है कि धनुष-उत्सव के बहाने कंस ने उन दोनों को मथुरा आमन्त्रित किया है। तीनों रथ पर सवार होकर मथुरा के लिये प्रस्थान करते हैं । अकूर कृष्ण के वियोग से दुखी गोपियों को उपदेश देते हैं। दूसरे सर्ग में कृष्ण और बलराम मथुरा पहुँच जाते हैं। कोदंडशाला में पहुँचकर कृष्ण बात की बात में धनुष तोड़ देते हैं । मथुरा नगरी का यहाँ सरस वर्णन है जिसमें कवि ने उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, दृष्टान्त आदि का प्रयोग किया है
इह कंचण-गेह कति-लित्ते । गअणे बाल-दिणेसमोहमोहा।। विहडेइ ण दिग्धिआसु दिग्धं ।
रअणीअं पि रहंगणाम जुग्गं ॥ -यहाँ पर आकाश सोने के बने हुए भवनों की कांति से व्याप्त रहता है, इसलिये चक्रवाकों के युगल उसे बालसूर्य समझ कर, दीर्घिकाओं में, रात्रि के समय भी दीर्घकाल तक अलग नहीं होते।
मथुरा नगरी साक्षात् स्वर्ग के समान जान पड़ती हैगंधव्वा ण किमेत्य संति ण हु किं विज्जति विजाहरा । किंवा चारू ण चारणाण अ कुलं जिणंति णो किंणरा॥ किं णेअं सुमणाण धाम किमहो णाहो महिंदो ण से । सग्गो च्वेव वसूण ठाणमिणमो रम्मं सुधम्मुज्जलं ॥
-क्या यहाँ गन्धर्व (नायक) नहीं है ? क्या यहाँ विद्याधर (विद्या के ज्ञाता) नहीं हैं ? क्या यहाँ सुन्दर चारणों (स्तुतिपाठकों ) का समूह नहीं है ? क्या यहाँ विजयी किंनर (विविध प्रकार के मनुष्य) नहीं हैं ? क्या यहाँ सुमनों (देव; सज्जन पुरुष) का घर नहीं है ? क्या यहाँ महेन्द्र (इन्द्र राजा) नहीं रहता १ वसु (देव; धन ) का यह स्थान सुधर्म (सुधर्मा ; श्रेष्ठ धर्म) से रम्य है, जो प्रत्यक्ष स्वर्ग ही प्रतीत होता है।