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भुंगसंदेश
६०७ णेत्तं भिंगं सह पिअअयं तस्स माआ-पहावा ।
सो कप्पंतो विरह-सरिसिं तं दस पत्तवंतो॥ -वह विरही उसकी माया के प्रभाव से अपनी प्रिया के समधुर आलाप को कोकिल का कूजन, उसके अंग को किसलय, मुख को कमल और नेत्रों को प्रियतम भंग समझ कर उस विरहसहश दशा को प्राप्त हुआ।
साहित्यदर्पण में हंससंदेश और कुवलायश्वचरित नाम के प्राकृत काव्यों का उल्लेख है। ये काव्य मिलते नहीं हैं।
V कंसवहो (कंसवध) कंसवहो श्रीमद्भागवत के आधार पर लिखा गया है । इस खंड-काव्य में चार सगों में २३३ पद्यों में कंसवध का वर्णन है। संस्कृत के अनेक छन्द और अलंकारों का इस काव्य में प्रयोग किया गया है। इसकी भाषा महाराष्ट्री है, कहीं शौरसेनी के रूप भी मिल जाते हैं । प्राकृत के अन्य प्राचीन ग्रन्थों की भाँति किसी प्रान्त की जनसाधारण की बोली के आधार से यह ग्रन्थ नहीं लिखा गया, बल्कि वररुचि आदि के प्राकृत व्याकरणों का अध्ययन करके इसकी रचना की गई है। इसलिये इसकी भाषा को शुद्ध साहित्यिक प्राकृत कहना ठीक होगा। कंसवहो के कर्ता रामपाणिवादं विष्णु के भक्त थे, वे केरलदेश के निवासी थे। इनकी रचनायें, संस्कृत, मलयालम और प्राकृत इन तीनों भाषाओं में मिलती हैं। संस्कृत में इन्होंने नाटक, काव्य और स्तोत्रों की रचना की है। प्राकृत में प्राकृतवृत्ति (वररुचि के प्राकृतप्रकाश की टीका ), उसाणिरूद्ध और कंसवहो की रचना की है। इनकी शैली संस्कृत से प्रभावित है, विशेषकर माघ के शिशुपालवध का प्रभाव इनकी रचना पर पड़ा है। पाणिवाद का समय ईसवी सन् १७०७ से १७७५ तक माना गया है।'
१. देखिये कंसवहो की भूमिका । यह ग्रन्थ डा० ए० एन० उपाध्ये द्वारा संपादित सन् १९४० में हिन्दी ग्रन्थ रनाकार कार्यालय, बम्बई से प्रकाशित हुआ है।