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प्राकृत साहित्य का इतिहास तत्कालीन संस्कृत काव्यशैली का इस पर गहरा प्रभाव है। स्कन्धक, गलितक, अनुष्टुप् आदि छन्द भी संस्कृत के ही हैं। सम्पूर्ण कृति एक ही आर्या छन्द में लिखी गई है। इस महाकाव्य का प्रभाव संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश पर भी पड़ा है। आगे चलकर इसके अनुकरण पर गउडवहो, कंसवहो और शिशुपालवध आदि अनेक प्रबन्धकाव्य लिखे गये। सेतुबन्ध पर अनेक टीकायें हैं जिनमें जयपुर राज्य के निवासी अकबरकालीन रामदास की रामसेतुप्रदीप टीका प्रसिद्ध है। यह टीका ईसवी सन् १५६५ में लिखी गई थी । रामदास के कथनानुसार विक्रमादित्य की आज्ञा से कालिदास ने इस ग्रन्थ को प्रवरसेन के लिये लिखा है, लेकिन यह कथन ठीक नहीं है।
कथा का आधार वाल्मीकि रामायण का युद्धकाण्ड है। विरह से संतप्त राम हनुमान द्वारा सीता का समाचार पाकर लंका की ओर प्रस्थान करते हैं। लेकिन मार्ग में समुद्र आ जाने से रुक जाते हैं। वानर-सेना समुद्र का पुल बाँधती है। राम समुद्र को पार कर लंका नगरी में प्रवेश करते हैं, और रावण तथा कुम्भकर्ण आदि का वध करके सीता को छुड़ा लाते हैं। अयोध्या लौटने पर उनका राज्याभिषेक किया जाता है। पहले आठ आश्वासों में शरद् ऋतु, रात्रिशोभा, चन्द्रोदय, प्रभात, पर्वत, समुद्रतट, सूर्योदय, सूर्यास्त, मलयपर्वत, वानरों द्वारा समुद्र पर सेतु बाँधने आदि का सुन्दर और काव्यात्मक वर्णन है। उत्तरार्ध में लंका नगरी का दर्शन, रावण का क्षोभ, निशाचरियों का संभोग, प्रमदवन, सीता की मूछो, लङ्का का अवरोध, युद्ध तथा रावणवध आदि का सूक्ष्म चित्रण किया गया है। बीच-बीच में अनेक सूक्तियाँ गुंफित हैं।
समुद्रवेला का वर्णन करते हुए कहा हैविअसिअतमालणीलं पुणो पुणो चलतरंगकरपरिमट्ठम् । फुल्लेलावणसुरहिं उअहि गइन्दस्स दाणलेहं व ठिअम् ।। १. ६३ -समुद्रतट विकसित तमाल वृक्षों से श्याम हो गया था,