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जैन आगम
२५ १० पइन्ना-चउसरण, आउरपञ्चक्खाण, महापञ्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, तंदुलवेयालिय, संथारग, गच्छायार, गणिविज्जा, देविंदत्थय, मरणसमाही।
६ छेयसुत्त-निसीह, महानिसीह, ववहार, दसासुयक्खंध (आयारदसाओ), कप्प (बृहत्कल्प), पंचकप्प (अथवा जीयकप्प)।
४ मूलसुत्त-उत्तरज्झयण, दसवेयालिय, आवस्सय, पिंडनिज्जुत्ति (अथवा ओहनिज्जुत्ति)।
नन्दी और अनुयोगदार ।
श्वेतांबर और दिगंबर दोनों ही सम्प्रदाय इन्हें आगम कहते हैं । अन्तर इतना ही है कि दिगंबर सम्प्रदाय के अनुसार कालदोष से ये आगम नष्ट हो गये हैं जब कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय इन्हें स्वीकार करता है।
प्राचीन काल में समस्त श्रुतज्ञान १४ पूर्वो' में अन्तर्निहित था | महावीर ने अपने ११ गणधरों को इसका उपदेश दिया । शनैः शनैः कालदोष से ये पूर्व नष्ट हो गये; केवल एक गणधर उनका ज्ञाता रह गया, और यह ज्ञान छह पीढ़ियों तक चलता रहा।
पक्खिय और नन्दिसूत्र । जिनप्रभसूरि ने काव्यमाला सप्तम गुच्छक में प्रकाशित 'सिद्धांतागमस्तव' में स्तवन के रूप में भागों का परिचय दिया है। तथा देखिये प्रोफेसर वेबर, इण्डियन ऐंटीक्वेरी (१७-२१) में प्रकाशित 'सेक्रेड लिटरेचर ऑव द जैन्स' नामक लेख, प्रोफेसर हीरालाल, रसिकदास कापडिया, हिस्ट्री ऑव द कैनोनिकल लिटरेचर ऑव द जैन्स; आगमोनु दिग्दर्शन; जगदीशचन्द्र जैन, लाइफ इन ऐशियेण्ट इण्डिया ऐज डिपिक्टेड इन जैन कैनन्स, पृष्ठ ३१-४३।
१. चौदह पूर्वो के नाम-उत्पादपूर्व, अग्रायणी, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, समयप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुप्रवाद, अवन्ध्य, प्राणावाय, क्रियाविशाल और बिन्दुसार।