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३४ प्राकृत साहित्य का इतिहास
१२ अंग-आयारंग, सूयगडंग, ठाणांग, समवायांग, वियाहपण्णत्ति (भगवती), नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हवागरणाइं, विवागसुय, दिट्ठिवाय (विच्छिन्न)।
१२ उपांग-ओववाइय, रायपसेणइय, जीवाभिगम, पन्नवणा, सूरियपण्णत्ति, जंबुद्दीवपण्णत्ति, चन्दपण्णत्ति, निरयावलियाओ, कप्पवडंसियाओ, पुफियाओ, पुप्फचूलियाओ, वहिदसाओ।
१२ नियुक्तियाँ१. आवश्यक ५. सूत्रकृताङ्ग
९. कल्पसूत्र २. दशवैकालिक ६. बृहत्कल्प १०. पिंडनियुक्ति ३. उत्तराध्ययन ७. व्यवहार ११. ओधनियुक्ति ४. आचारांग ८. दशाश्रुत १२. संसक्तनियुक्ति
(सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति और ऋषिभाषितनियुक्ति अनुपलब्ध हैं)। ये सब मिलकर ८३ आगम होते हैं। इनमें जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण का विशेषावश्यक महाभाष्य जोड़ने से ८४ हो जाते हैं।
श्वेताम्बर स्थानकवासी ३२ आगम मानते हैं।
नन्दीसूत्र ( ४३ टीका, पृष्ठ ९०-९५) के अनुसार श्रुत के दो भेद बताये गये हैं-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट । प्रश्न पूछे बिना अर्थ का प्रतिपादन करनेवाले श्रुत को अङ्गबाह्य, तथा गणधरों के प्रश्न करने पर तीर्थकर द्वारा प्रतिपादित श्रुत को अंगप्रविष्ट कहते हैं। अंगबाह्य के दो भेद हैं-आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त। सामयिक आदि आवश्यक के छह भेद हैं। आवश्यकव्यतिरिक्त कालिक और उत्कालिक भेद से दो प्रकार का है। जो दिन और रात्रि की प्रथम और अन्तिम पोरिसी में पढ़ा जाये उसे कालिक और जो किसी कालविशेष में न पढ़ा जाये उसे उत्कालिक कहते हैं। कालिक के उत्तराध्ययन आदि ३१ और उत्कालिक के दशवकालिक आदि २८ भेद हैं। अंगप्रविष्ट के आचारांग आदि १२ भेद हैं। विस्तार के लिये देखिये मोहनलाल, दलीचन्द, देसाई, जैनसाहित्यनो इतिहास, श्रीजैन श्वेतांबर कॉन्फरेन्स, बम्बई, १९३३, पृष्ठ ४०-४५ । आगमों के विशेष परिचय के लिये देखिये समवायांग,