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रयणचूडरायचरिय चित्ते य वट्टसि तुम, गुणेसु न य खुट्टसे तुमं सुयणु । सेज्जाए पलोट्टसि तुमं विवट्टसि दिसामुहे तंसि ॥ . बोल्नंमि वट्टसि तुमं, कव्वपबंधे पयट्टसि तुमं ति। तुह विरहे मह सुंदर ! भुवणं पि हु तं मयं जायं ।'
-राज्य मुझे नरक के समान लगता है, विषयभोग विष के समान प्रतीत होते हैं और लक्ष्मी दुःखदायी हो गई है। हे सुंदरि। तुम्हारे विरह में यह नगर अरण्य के समान जान पड़ता है । हे सुतनु ! आगे, पीछे और आस-पास जहाँ-जहाँ तुम दिखाई देती हो, वहाँ-वहाँ यह दिशामंडल जलता हुआ जान पड़ता है। मैं तुझे अपने चित्त की रथ्या समझता हूँ। तुम सदा मेरे मन में बसती हो । हे सुतनु ! तुम गुणों से क्षीण नहीं हो । तुम जैसे-जैसे शय्या पर करवट लेती हो, वैसे-वैसे उस दिशा में मेरा मन चला जाता है। प्रत्येक बोल में तुम रहती हो, काव्यप्रबंध में बसती हो । हे सुंदरि ! तुम्हारे विरह के कारण यह सारा संसार तद्रूप हो गया है।"
"तुम्हें अब अधिक संताप नहीं करना चाहिये। कर्म के वश से किसकी दशा विषमता को प्राप्त नहीं हो जाती। तुम्हारी अब मैं शीघ्र ही खबर लूँगा।"
रत्नचूड और मदनकेशरी के युद्ध का वर्णन है। रत्नचूड मदनकेशरी को पराजित कर तिलकसुंदरी को वापिस लाता है। तत्पश्चात् अपनी पाँचों स्त्रियों को लेकर वह तिलकसुंदरी के मातापिता से मिलने नन्दिपुर जाता है।
धनपाल सेठ की भार्या ईश्वरी बड़ी कटुभाषिणी थी और साधुओं को भिक्षा देने के बहुत खिलाफ थी। एक बार बहुत से काटिक साधु उसके घर भिक्षा के लिये आये | आते ही उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया-"सोमेश्वर तुझ पर प्रसन्न हों,
१. ये अन्त की दोनों गाथायें कुछ हेरफेर के साथ काव्यप्रकाश (८-३४३ ) में मिलती हैं जो कर्पूरमंजरी (२-४)से ली गई हैं।