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उपदेशरत्नाकर
५२३ मुहपरिणामे रम्मारम्म जह ओसहं भवे चउहा । इअ वुद्धधम्मजिणतवपभावणाधम्ममिच्छाणि ॥
-औषधि चार प्रकार की होती है (१) स्वादिष्ट लेकिन परिणा में कटु, (२) खाने में कड़वी लेकिन परिणाम में सुन्दर, (३) खाने में अच्छी और परिणाम में भी अच्छी, (४) खाने में कड़वी और परिणाम में कटु । इसी प्रकार क्रम से बुद्धधर्म, जिनधर्म, प्रभावनाधर्म और मिथ्यात्वरूप धर्म को समझना चाहिये।
फिर मिथ्यात्व, कुभाव, प्रमादविधि तथा सम्यक्त्वशुभभावअप्रमत्तविधि की क्रम से परिखा, पशुओं से कलुषित जल, नवीन जल और मानससरोवर से उपमा दी गई है। शुक, मशक, मक्षिका, करि, हरि, भारंड, रोहित और मश (मछली) के दृष्टान्तों द्वारा मिथ्यात्व के बंधन में बद्ध अधम जीवों का प्रतिपादन किया है। मोदक के दृष्टान्त द्वारा आठ प्रकार के मनुष्यजन्म का स्वरूप बताया है। यवनाल, इक्षुदण्ड, रस, गुड़, खांड और शक्कर के दृष्टान्तों से धर्म के परिणाम का प्रतिपादन किया है।
वर्धमानदेशना इसके रचयिता साधुविजयगणि के शिष्य शुभवर्धनगणि हैं।' विक्रम संवत् १५५२ (ईसवी सन् १९६५) में इन्होंने वर्धमानदेशना नामक ग्रंथ की रचना की । प्राकृत पद्यों में लिखा हुआ यह ग्रंथ उपासकदशा नाम के सातवें अंग में से उद्धृत किया गया है। इसके प्रथम विभाग में तीन उल्लास हैं । यहाँ विविध कथाओं द्वारा महावीर के धर्मोपदेश का प्रतिपादन है। उदाहरण के लिये, सम्यक्त्व का प्रतिपादन करने के लिये हरिबल, हंसनृप, लक्ष्मीपुंज, मदिरावती, धनसार, हंसकेशव, चारुदत्त,
१. जैनधर्मप्रसारक सभा, भावनगर की ओर से विक्रम संवत् १९८४ में प्रकाशित ।