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धर्मोपदेशमाला-विवरण ५०१ का अनुकरण करके जयसिंहसूरि ने संवत् ६१५ (ईसवी सन् ८५८) में गद्य-पद्य मिश्रित इस कथा-प्रन्थ की रचना की है। इस कृति में १८ गाथायें हैं जिनमें १५६ कथायें गुंफित हैं। अनेक स्थानों पर कादंबरी के गद्य की काव्यमय छटा देखने में आती है। जयसिंहसूरि अलंकारशास्त्र के पंडित थे। इस ग्रन्थ में अनेक देशों, मंदिरों, नदियों, सरोवरों आदि के प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन हैं, तथा प्रेमपत्रिका, प्रश्नोत्तर, पादपूर्ति, वक्रोक्ति, व्याजोक्ति, गूढोक्ति आदि के उदाहरण यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। महाराष्ट्री भाषा को सुललित पद-संचारिणी होने के कारण कामिनी और अटवी के समान सुन्दर कहा गया है। धार्मिक तत्त्वज्ञान के साथ-साथ यहाँ तत्कालीन सामाजिक और व्यावहारिक ज्ञान का भी चित्रण मिलता है। इस ग्रन्थ की बहुसंख्यक कथायें यद्यपि प्राचीन जैन ग्रन्थों से ली गई हैं, फिर भी उनके कथन का ढंग निराला है।
दान के फल में धन सार्थवाह और शील के फल में राजीमती की कथा वर्णित है। राजीमती के आख्यान में स्त्रियों की निन्दा है, लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि ऋषभ आदि तीर्थंकरों ने स्त्री-भोग करने के पश्चात् ही संसार का त्याग किया था। राजीमती के विवाह (वारेजय) महोत्सव का वर्णन है। पर्वत की गुफा में राजीमती को वसन रहित अवस्था में देखकर रथनेमी उसे भोग भोगने के लिये निमंत्रित करता है। राजीमती उसे उपदेश देती है। तप के परिणाम में दृढ़प्रहारी और भाव के फल में इलापुत्र आदि की कथाओं का वर्णन है। यथार्थवाद का कथन करने में आचार्य कालक का आख्यान है। वणिक पुत्र की कथा में दिव्य महास्तूप से विभूषित मथुरा नगरी का उल्लेख है। वणिकपुत्र मथुरा के राजा की रानी को देखकर उसके प्रति अनुरक्त हो गया १. सललियपयसंचारा पयडियमयणा सुवण्णरयणेला ।
मरहट्टयभासा कामिणी य अडवी य रेहति ॥