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उपदेशपद के केवल पैरों का ही चित्र बना सकी (उसके ऊपर सीता की दृष्टि ही नहीं पहुंची थी)। इस चित्र को अपनी कुटिल बुद्धि से सीता की सौत ने रामचन्द्र को दिखाते हुए कहादेखिये महाराज, अभी भी यह रावण का मोह नहीं छोड़ती। यह जानकर रामचन्द्र सीता से बहुत असंतुष्ट हुए ।'
गूढामसूत्र की पिंडपरीक्षा में पादलित आचार्य का उदाहरण दिया है। पारिणामिकी बुद्धि के उदाहरण में वज्रस्वामी के चरित का वर्णन है। स्तूपेन्द्र के उदाहरण में कूलवालग नामक ऋषि का आख्यान है। यह ऋषि गुरु के शाप से तापस आश्रम में जाकर रहने लगा। मागधिका वेश्या ने उसे खाने के लिये लड्डू दिये और वह वेश्या के वशीभूत हो गया। आगे चलकर वह वैशाली नगरी के विनाश का कारण हुआ।
किसी राजा की सभा में कोई भी मंत्री नहीं था। उसे सुमति नाम के किसी अंधे ब्राह्मण का पता लगा। राजा ने रास्ते में लगी हुई बेर की झाड़ी, अश्व और कन्याओं की परीक्षा करा कर उसे मंत्री पद पर नियुक्त किया। वेद का रहस्य समझाने के लिये गुरु ने पर्वतक और नारद को वध करने के लिये एक-एक बकरा देकर उनकी परीक्षा की | अहिंसा को सर्व धर्मों का सार कहा है। आर्यमहागिरि और आर्यसुहस्ति का यहाँ आख्यान दिया है। दशार्णपुर एडकक्षपुर नाम से भी कहा जाता था, इसकी उत्पत्ति का निदर्शन किया है। गजाप्रपद्'
१. ब्रजभाषा के लोकगीतों में यह प्रसंग आता है। अन्तर केवल इतना ही है कि सौत का स्थान यहाँ ननद को मिलता है। देखिये डाक्टर सत्येन्द्र, ब्रजलोक साहित्य का अध्ययन, पृ० १३७-१३८ ।
२. गजानपदगिरि का दूसरा नाम दशार्णकूट था। यह दशाणपुर (एडकाक्षपुर, एरछ, जिला झाँसी ) में अवस्थित था। गजानपदगिरि को इन्द्रपद नाम से भी कहा गया है। इसके चारों ओर तथा ऊपर और नीचे बहुत से गाँव थे। देखिये जगदीशचन्द्र जैन, लाइफ इन ऐंशियेण्ट इण्डिया, पृ० २८४, २८३ ।
३२ प्रा०सा०