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४८८ प्राकृत साहित्य का इतिहास कि देवभद्रसूरि चन्द्रगच्छ में हुए थे। उनके शिष्य सिद्धसेनसूरि और सिद्धसेनसूरि के शिष्य मुनिचन्द्रसूरि थे। वीरदेवगणि मुनिचन्द्र के शिष्य थे । विषयवस्तु के विवेचन को देखते हुए यह रचना अर्वाचीन मालूम होती है। ___ महीपाल उज्जैनी नगरी के राजा के पास रहता था। वह अनेक कलाओं में निष्णात था। एक बार राजा ने गुस्से में आकर इसे अपने राज्य से निकाल दिया। अपनी पत्नी के साथ घूमता-फिरता महीपाल भडौंच में आया और वहाँ से जहाज में बैठकर कटाहद्वीप की ओर चला गया। रास्ते में जहाज भग्न हो गया और बड़ी कठिनाई से किसी तरह वह किनारे पर लगा। कटाहद्वीप के रत्नपुर नगर में पहुँच कर उसने राजकुमारी चन्द्रलेखा के साथ विवाह किया। इसके बाद वह चन्द्रलेखा के साथ जहाज़ में बैठकर अपनी पूर्व पत्नी सोमश्री की खोज में निकला | देखभाल के लिए राजा का अथर्वण नामका मंत्री उनके साथ चला। रास्ते में राजपुत्री को प्राप्त करने और धन के लोभ से उसने महीपाल को समुद्र में धक्का दे दिया। राजपुत्री चन्द्रलेखा बड़ी दुखी हुई, और वह चक्रेश्वरी देवी की उपासना में लीन हो गई । उधर महीपाल समुद्र को तैरकर किसी नगर में आया और उसने शशिप्रभा के साथ विवाह किया। शशिप्रभा से उसने खट्वा, लकुट और सर्वकामित विद्यायें सीखीं। उसके बाद महीपाल रत्नसंचयपुर नगर में आया, और यहाँ चक्रेश्वरी के मन्दिर में उसे अपनी तीनों स्त्रियाँ मिल गई। नगर के राजा ने महीपाल को सर्वगुणसम्पन्न जानकर मंत्री पद पर बैठाया और अपनी पुत्री चन्द्रश्री का उससे विवाह कर दिया । महीपाल अपनी चारों स्त्रियों को लेकर उज्जैनी वापिस लौटा। अन्त में जैनधर्म की दीक्षा ग्रहण कर महीपाल ने मोक्ष प्राप्त किया ।
इस कथा में नवकारमंत्र का प्रभाव, चण्डीपूजा, शासनदेवता की भक्ति, यक्ष और कुलदेवी की पूजा, भूतों की बलि, जिनभवन का निर्माण, केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर देवों द्वारा कुसुम-वर्षा,