________________
महीपालकथा
न्हाणं चीवरघोअण मत्थय-गुंथण अबभचेरं च ।
खंडण पीसण पीलण वज्जेयव्वाइं पव्वदिणे॥ -स्नान करना, वस्त्र धोना, सिर गूंथना, अब्रह्मचर्य, खोटना, पीसना और पेलना यह सब पर्व के दिनों में वर्जित है। वर-कन्या के संयोग के संबंध में उक्ति है:
कत्थवि वरो न कन्ना कत्थवि कन्ना न सुंदरो भत्ता ।
वरकन्ना संजोगो अणुसरिसो दुल्लहो लोए । -कभी वर अच्छा मिल जाता है लेकिन कन्या अच्छी नहीं होती, कभी कन्या सुन्दर होती है, लेकिन वर सुन्दर नहीं मिलता। वर और कन्या का एक दूसरे के अनुरूप मिलना इस लोक में दुर्लभ है। वियोग दुख का वर्णन देखिये
दिण जायइ जणवत्तडी पुण रत्तडी न जाइ । ___ अणुरागी अणुरागी सहज सरिषउं माइ ।
-दिन तो गपशप में बीत जाता है, लेकिन रात नहीं बीतती। हे मां ! अनुरागी अनुरागी से मिलकर एक समान हो जाता है। स्त्री को कौन सी वस्तुएँ प्रिय होती हैं
थीअह तिन्नि पियारडा कलि कजल सिन्दूर।
अनइ विसेणि पियारडां दूध जमाई तूर ॥ -त्रियों को तीन वस्तुएँ प्रिय होती हैं- कलह, काजल और सिन्दूर | और इन से भी अधिक उनकी प्रिय वस्तुएँ हैं-दूध, जमाई और बाजा।
महिवालकहा ( महीपालकथा) महिवालकहा प्राकृत पद्य में लिखी हुई वीरदेवगणि' की रचना है। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से इतना ही पता चलता है
१. श्रीहीरालाल द्वारा संशोधित यह ग्रंथ विक्रम संवत् १९९८ में अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है।