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४६० प्राकृत साहित्य का इतिहास धूमधाम से मनाया गया। महेश्वरदत्त नर्मदासुन्दरी को साथ लेकर धन कमाने के लिये यवनद्वीप गया। मार्ग में अपनी पत्नी के चरित्र पर संदेह हो जाने के कारण उसने उसे वहीं छोड़ दिया। निद्रा से उठकर नर्मदासुन्दरी ने अपने आपको एक शून्य द्वीप में पाया और वह प्रलाप करने लगी। कुछ समय पश्चात् उसे उसका चाचा वीरदास मिला और वह नर्मदासुंदरी को बब्बरकूल (एडन के आसपास का प्रदेश) ले गया। यहीं से नर्मदासुंदरी का जीवन-संघर्ष आरम्भ होता है । यहाँ पर वेश्याओं का एक मुहल्ला था, जिसमें सात सौ गणिकाओं की स्वामिनी हरिणी नाम की एक सुप्रसिद्ध गणिका निवास करती थी। सब गणिकायें उसके लिये धन कमाकर लातीं और वह उस धन का तीसरा या चौथा भाग राजा को दे देती। हरिणी को जब पता लगा कि जंबूद्वीप (भारतवर्ष) से वीरदास नाम का कोई व्यापारी वहाँ उतरा है, तो उसने अपनी दासी को भेजकर वीरदास को आमंत्रित किया लेकिन वीरदास ने दासी के जरिये हरिणी को आठ सौ द्रम्म भेज दिये, वह स्वयं उसके घर नहीं गया। हरिणी को बहुत बुरा लगा। इस प्रसंग पर हरिणी की दासियों ने नर्मदासुंदरी को देखा, और किसी युक्ति से वे उसे भगाकर अपनी स्वामिनी के पास ले गई। वीरदास ने नर्मदासुंदरी की बहुत खोज की और जब उसका पता न लगा तो वह अपने देश लौट गया। नर्मदासुंदरी ने भोजन का त्याग कर दिया । हरिणी वेश्या ने कपटसंभाषण द्वारा उसे फुसलाने की कोशिश की और उसे गणिका बनकर रहने का उपदेश दिया
सुंदरि ? दुल्लहो माणुसी भावो, खणभंगुरं तारुनं, एयस्स विसिट्ठसुहाणुभवणमेव फलं । तं च संपुग्नं वेसाणामेव संपडइ, न कुलंगणाणं। जओ महाणमवि भोयणं पइदियहं मुंजमाणं न जीहाए तहा सुहमुप्पाएइ, जहा नवनवं दिणे दिणे । एवं पुरिसो नवनवो नवनवं भोगसुहं जणइ य । अन्नं च