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४५० . प्राकृत साहित्य का इतिहास पताका, कमल आदि राज-लक्षणों का प्रतिपादन है। ब्राह्मण लोग सामुद्रिक शास्त्र के पंडित होते थे। धनसाधु के कथानक में वइरागर ( वज्राकर ) नाम के देश का उल्लेख है। दिवाकर नाम का कोई जोगी खन्यविद्या में विचक्षण था। अपनी विद्या के बल से वह जमीन में गड़े हुए धन का पता लगा लेता था। इसके लिये मंडल बना कर, देवता की पूजा कर मंत्र का स्मरण किया जाता था। श्रीपर्वत पर ध्यान में लीन रहनेवाले एक महामुनि से उसने इस विद्या का उपदेश ग्रहण किया था । कात्यायनी देवी को सर्वसंपत्तिदायिनी माना गया है। मणिशास्त्र के अनुसार रत्नों के लक्षण प्रतिपादित किये गयेहैं। सामुद्रशास्त्र से भी श्लोक उद्धृत किये हैं। अंचलकथा में हाथियों में फैलनेवाली महाव्याधि का उल्लेख है। ऐसे प्रसंगों पर विशेष देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती, लक्ष होम किये जाते, नवग्रहों की पूजा की जाती और पुरोहित लोग शान्तिकर्म में लीन रहते। देवनृपकथानक में पंचमंगलश्रुतस्कंध का उल्लेख मिलता है। विजयकथानक में चैत्य पर ध्वजारोपण-विधि बताई गई है। कीड़ों से नहीं खाये हुए सुन्दर पर्व वाले बांस को मंगवाकर, प्रतिमा को स्नान कराकर, चारों दिशाओं में भूशुद्धि कर, दिशा के देवताओं का आह्वान कर बांस का विलेपन किया जाता, फिर कुसुम आदि का आरोपण किया जाता, धूप की गंध दी जाती और उस पर श्वेत ध्वजा आरोपित की जाती। जोगंधर नाम के सिद्ध के पास अदृश्य अंजन था जिसे लगाकर वह स्वेच्छापूर्वक विहार किया करता था। कामरूप (आसाम) में आकृष्टि, दृष्टिमोहन, वशीकरण, और उच्चाटन में प्रवीण तथा योगशास्त्र में कुशल बल नाम का सिद्ध रहता था। वह गहन गिरि, श्मशान, आश्रम आदि में परिभ्रमण करता फिरता था। चक्रधर नाम के धातुसिद्ध का उल्लेख है। यहाँ वेद के अपौरुषेयत्ववाद का निरसन किया गया है। पद्मश्रेष्ठिकथानक में आवश्यकचूर्णि का उल्लेख है। वैदिक लोग यज्ञ में बकरों