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४४८ प्राकृत साहित्य का इतिहास भरवस (भरोसा), ढयर (पिशाच) आदि अनेक देशी शब्दों का यहाँ प्रयोग हुआ है। बीच-बीच में कहावतें भी मिल जाती हैं। जैसे हत्थत्थकंकणाणं किं कज्जं दप्पणेणऽहवा ( हाथ कंगन को आरसी क्या ?), किं छालीए मुहे कुंभंडं माइ ? (क्या बकरी के मुंह में कुम्हडा समा सकता है ? ) आदि ।
कहारयणकोस ( कथारत्नकोश ) कथारनकोश के कर्ता गुणचन्द्रगणि देवभद्रसूरि के नाम से भी प्रख्यात हैं। ये नवांगवृत्तिकार अभयदेवसूरि के शिष्य प्रसन्नचन्द्रसूरि के सेवक और सुमतिवाचक के शिष्य थे | कथारत्नकोश (सन् ११०१ में लिखित) गुणचन्द्रगणि की महत्त्वपूर्ण रचना है जिसमें अनेक लौकिक कथाओं का संग्रह है। इसके अतिरिक्त इन्होंने पासनाहचरिय, महावीरचरिय, अनंतनाथ स्तोत्र, वीतरागस्तव, प्रमाणप्रकाश आदि ग्रंथों की रचना की है। कथारत्नकोश में ५० कथानक हैं जो गद्य और पद्य में अलंकारप्रधान प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। संस्कृत और अपभ्रंश का भी उपयोग किया है। ये कथानक अपूर्व हैं जो अन्यत्र प्रायः कम ही देखने में आते हैं। यहाँ उपवन, ऋतु, रात्रि, युद्ध, श्मशान आदि के काव्यमय भाषा में सुन्दर चित्रण हैं। प्रसंगवश अतिथिसत्कार, छींक का विचार, राजलक्षण, सामुद्रिक, रत्नपरीक्षा आदि का विवेचन किया गया है। गरुडोपपात नामक जैन सूत्र का यहाँ उल्लेख है जो आजकल विलुप्त हो गया है। सिद्धांत के रहस्य को गोपनीय कहा है। कच्चे घड़े में रक्खे हुए जल से इसकी उपमा दी है और बताया गया है कि योग्यायोग्य का विचार करके ही धर्म का रहस्य प्रकाशित करना चाहिये
आमे घड़े निहित्तं जहा जलं तं घडं विणासेइ । इय सिद्धंतरहस्सं अप्पाहारं विणासेइ ॥ १. आत्मानंद जैन ग्रंथमाला में मुनि पुण्यविजय जी द्वारा सम्पादित, सन् १९४४ में प्रकाशित ।