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प्राकृत साहित्य का इतिहास
. महाराष्ट्री भरत के नाट्यशास्त्र में महाराष्टी प्राकृत का उल्लेख नहीं है । अश्वघोष और भास के नाटकों में भी महाराष्ट्री के प्रयोग देखने में नहीं आते । हेमचन्द्र, शुभचन्द्र और श्रुतसागर ने भी आर्ष प्राकृत का ही उल्लेख किया है, महाराष्टी का नहीं । वररुचि ने अपने प्राकृतप्रकाश में शौरसेनी के लक्षण बताने के पश्चात् 'शेषं महाराष्ट्रीवत्' (१२.३२) लिखकर महाराष्ट्री को मुख्य प्राकृत स्वीकार किया है, लेकिन जैसा पहले कहा जा चुका है इस अध्याय पर भामह की टीका नहीं है, इसलिये इस अध्याय 'को प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। महाकवि दंडी ने महाराष्ट्र में बोली जानेवाली भाषा को उत्तम प्राकृत कहा क्योंकि इसमें सूक्तिरूपी रत्नों का सागर है और सेतुबंध' इसी में लिखा गया
(ख) त के स्थान में द होना, (ग) क, ग, च, ज का लोप होना (अश्वघोष के नाटकों में इनका लोप नहीं पाया जाता । भास के नाटकों
और नाट्यशास्त्र में दोनों रूप देखने में आते हैं। आगे चलकर इन व्यंजनों के लोप को शौरसेनी का लक्षण मान लिया गया। दिगंबरों के प्राचीन ग्रन्थों में भी इन व्यंजनों के संबंध में कोई निश्चित नियम नहीं पाया जाता)। (घ) ख, घ, फ, भ का लोप होना (इन व्यञ्जनों के सम्बन्ध में भी कोई निश्चित नियम नहीं पाया जाता । उदाहरण के लिये अश्वघोष में सखि आदि शब्द मिलते हैं)। (ङ) क्त्वा प्रत्यय के स्थान में दूण प्रत्यय लगना आदि नियमों में एकरूपता नहीं पाई जाती । इससे यही अनुमान होता है कि शौरसेनी भाषा क्रमशः विकास को प्राप्त हो रही थी । देखिये उपर्युक्त जरनल में घाटगे का लेख ।
१. लेकिन सेतुबंध के दा, दाव, उदू आदि रूप महाराष्ट्री के रूप 'न मानकर शौरसेनी के हो मानने चाहिये, देखिए डाक्टर ए० एन० उपाध्ये, एनल्स ऑव भांडारकर इंस्टिट्यूट १९३९-४० में 'पैशाची लैंग्वेज
और लिटरेचर' नामक लेख; डाक्टर मनोमोहन घोष, कर्पूरमंजरी की 'भूमिका, पृष्ठ ७२।