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मूलशुद्धिप्रकरण
४३१ मूलशुद्धिप्रकरण मूलशुद्धिप्रकरण का दूसरा नाम स्थानकप्रकरण है जिसके कर्ता प्रद्युम्नसूरि हैं, ये ईसवी सन् की १०वीं शताब्दी में हुए हैं। यह ग्रंथ पद्यात्मक है। इस पर हेमचन्द्र आचार्य के गुरु देवचन्द्रसूरि ने ११वीं शताब्दी में टीका रची है। आरंभ की गाथाओं में गुरु के उपदेश और सम्यक्त्वशुद्धि का वर्णन है। टीकाकार ने आर्द्रककुमार, आर्यखपुटाचार्य, आर्य महागिरि, एलकाक्ष, गजाप्रपद पर्वत की उत्पत्ति, भीम-महाभीम, आरामशोभा, शिखरसेन, सुलसा (अपभ्रंश भाषा में), श्रीधर, इन्द्रदत्त, पृथ्वीसार कीर्तिदेव, जिनदास, कार्तिकश्रेष्ठि, रंगायणमल्ल, जिनदेव, कुलपुत्रक, देवानन्दा, और धन्य आदि कथानकों का वर्णन किया है। प्रथम स्थानक में ग्रन्थकर्ता ने जिनबिम्ब का प्रतिपादन किया है। पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, फल, घृत आदि द्वारा जिनप्रतिमा के पूजन का विधान है।
कथाकोषप्रकरण (कहाणयकोस) कथाकोषप्रकरण सुप्रसिद्ध श्वेतांबर आचार्य जिनेश्वरसूरि की रचना है जिसे उन्होंने वि० सं० ११०८ (सन् १०५२) में लिखकर समाप्त किया था। सुरसुन्दरीचरिय के कर्ता धनेश्वर, नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि और महावीरचरिय के कर्ता गुणचंद्र गणि आदि अनेक धुरंधर जैन विद्वानों ने युगप्रधान जिनेश्वरसूरि का बड़े आदर के साथ स्मरण किया है। जिनेश्वरसूरि ने दूर-दूर तक भ्रमण किया था और विशेषकर गुजरात, मालवा और राजस्थान इनकी प्रवृत्तियों के केन्द्र थे। इन्होंने और भी अनेक प्राकृत और संस्कृत के ग्रंथों की रचना की है जिनमें हरिभद्रकृत अष्टक पर वृत्ति, पंचलिंगीप्रकरण, वीरचरित्र और
१. सिंधी जैन ग्रन्थमाला में पंडित अमृतलाल भोजक द्वारा संपादित होकर यह प्रकाशित हो रहा है। इसके कुछ पृष्ठ मुनि जिनविजय जी की कृपा से देखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है।