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कुवलयमाला
४२६ -हे प्रिय सखियों ! रोमांच से कम्पित, स्वेदयुक्त और ज्वरपीड़ित मुझे यहाँ छोड़कर मत भागो।
सखियाँ-तुझ पइ चिय वेज्जो जरयं अवणेही एसो।
-तुम्हारा पति ही वैद्य है, वह तुम्हारी ज्वर की पीड़ा दूर करेगा।
तत्पश्चात् कुवलयचन्द और कुवलयमाला के प्रेमपूर्ण विनोद और उक्ति-प्रत्युक्ति आदि का सरस वर्णन है। दोनों पहेलियाँ बूझते हैं। बिंदूमति (जिसमें आदि और अन्तिम अक्षरों को छोड़कर बाकी अक्षरों के स्थान पर केवल बिंदु दिये जाते हैं, और इन बिन्दुओं को अक्षरों से भर कर गाथा पूरी की जाती है), अविडअ (यह बत्तीस कोठों में व्यस्त-समस्त रूप से लिखा जाता है ), प्रश्नोत्तर, आततत, गूढोत्तर आदि के द्वारा वे मनोरञ्जन करते रहे । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची, मागधी, राक्षसी और मिश्र भाषाओं का उल्लेख भी कवि ने यहाँ किया है। प्रथमाक्षर रचित गाथा का उदाहरण
दाणदयादक्खिण्णा सोम्मा पयईए सव्वसत्ताणं । हंसि व्व सुद्धपक्खा तेण तुमं दंसणिज्जासि ॥ इस गाथा के तीनों चरणों के प्रथम अक्षर लेने से 'दासोह' रूप बनता है । एक पत्र का नमूना देखिये
'सत्थि । अउज्मापुरवरीओ महारायाहिराय-परमेसर-दढवम्मे विजयपुरीए दीहाउयं कुमार-कुवलयचन्दं महिन्दं च ससिणेहं अवगूहिऊण लिहइ | जहा तुम विरह-जलिय-जालावली-कलावकरालिय-सरीरस्स णस्थि मे सुह, तेण सिग्घ-सिग्घयरं अव्वस्सं आगंतव्वं'।
-स्वस्ति । अयोध्यानगरी से महाराजाधिराज परमेश्वर कृढ़वर्मा विजयपुरी के दीर्घायु कुमार कुवलयचन्द और महेन्द्र को सस्नेह आलिंगन पूर्वक लिखता है कि तुम्हारी विरहाग्नि में प्रज्वलित इस शरीर को सुख नहीं, अतएव तुम फौरन ही जरूरजरूर यहाँ चले आओ।