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प्राकृत साहित्य का इतिहास दूसरा छात्र-मैं ठीक तरह से गाथा पढूंगा।
अन्य छात्र (व्याघ्रस्वामी से)-अरे व्याघ्रस्वामि ! क्या तू गाथा पढ़ता है ? व्याघ्रस्वामी-हाँ, यह है गाथा
सा तु भवतु सुप्रीता अबुधस्य कुतो बलं ।
यस्य यस्य यदा भूमि सर्वत्र मधुसूदन ।। यह सुनकर एक दूसरा छात्र गुस्से से कहने लगा
अरे मूर्ख ! स्कन्ध' को भी गाथा कहता है ? क्या हमसे गाथा नहीं सुनना चाहते हो ?
छात्रों ने कहा-भट्टयजुस्वामि ! तुम अपनी गाथा सुनाओ । भट्टयजुस्वामी-लो, पढ़ता हूँ
आई कजि मत्त गय गोदावरि ण मुयंति ।
को तहु देसहु आवतइ को व पराणइ वत्त ॥ यह सुनकर छात्रों ने कहा-अरे ! हम श्लोक नहीं पूछते, हमें गाथा पढ़कर सुनाओ। भट्टयजुस्वामी ने निम्न गाथा सुनाई
तंबोल-रइय-राओ अहरो दृष्टवा कामिनि-जनस्स ।
अम्हं चिय खुभइ मणो दारिद्र-गुरू णिवारेइ ।। यह सुनकर सब छात्र कहने लगे
अहा! भट्टयजुस्वामी का विदग्ध पाण्डित्य है, उसने बड़ी विद्वत्तापूर्ण गाथा पढ़ी है, इसके साथ अवश्य ही कुवलयमाला का विवाह होगा।
१. यह गाथाछंद का ही एक प्रकार है और इसमें ३२ मात्रायें होती हैं। देखिये हेमचन्द्र का छन्दोनुशासन, पृष्ठ २८ ब, पंक्ति १४ । साहित्यदर्पणकार ने इसका लक्षण किया है
स्कंधकमिति तत्कथितं यत्र चतुष्कलगणाष्टकेनाधं स्यात् । तत्तुल्यमग्रिमदलं भवति चतुष्पष्टिमात्रकशरीरमिदं ॥
(३, पृष्ठ १६४ टीका)