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कुवलयमाला
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इसके बाद छात्रों में आपस में कुवलयमाला के सम्बन्ध में चर्चा होने लगी__एक छात्र ने कहा-क्या तुम्हें राजकुल का वृत्तांत मालूम है ? सब छात्र व्याघ्रस्वामी से पूछने लगे-“हे व्याघ्रस्वामि ! बोलो, राजकुल का क्या समाचार है ?"
व्याघ्रस्वामी-पुरुषद्वेषिणी कुवलयमाला ने ( समस्यापूर्ति के 'लिए) गाथा का एक चरण लटकाया है।
यह सुनकर एक छात्र जल्दी से उठकर कहने लगा-यदि इसमें पांडित्य का प्रश्न है तो कुवलयमाला का मेरे साथ विवाह होना चाहिये।
दूसरे ने पूछा-अरे ! तेरा वह कौन सा पांडित्य है ? ( अरे कवणु तउ पाण्डित्यउ)।
उसने उत्तर दिया-मैं षडांग वेद का अध्ययन करता हूँ, त्रिगुण मंत्र पढ़ता हूँ।
दूसरे छात्र ने कहा-अरे! त्रिगुण मंत्रों से विवाह नहीं होता। जो ठीक तरह से चरण की पूर्ति कर दे उसके साथ विवाह होगा। 'किं सा विसेस-महिला वलक्खइएल्लिय'। तेण भणियं 'अह हा, सा य भडारिय संपूर्णस्वलक्खण गायत्रि ( = सावित्री) यदृसिय' । अपणेण भणियं वर्णिण कीदृशं तत्र भोजनं ।' अण्णेण भणियं 'चाई भट्टो, मम भोजन स्पृष्टं, वक्षको हं, न वासुकि'। अण्णेण भणियं 'कत्तु घडति तउ, हद्धय उल्लाव, भोजन स्पृष्ट स्वनाम सिंघसि' । अण्णेण भणियं 'अरे रे बड्डो महामूर्ख, ये पाटलिपुत्रमहानगरवास्तव्ये ते कुत्था समासोक्ति बुझंति'। अण्णेण भणियं 'अस्मादपि इयं 'मूर्खतरी'। अण्णेण भणियं 'काई कज्जु (= कार्य)।' तेण भणियं 'अनिपुण-निपुणाथोक्ति-प्रचुर (= अर्थोक्तिप्रचुर)।' तेण भणियं 'भर काई मां मुक्त, अम्बोपि विदिग्धः संति ।' अण्णेण भणियं 'भट्टो, सत्यं त्वं विदग्धः, किं पुणु भोजने स्पृष्ट माम कथित । तेण भणियं 'अरे महामूर्ख, वासुकेर्वदनसहस्त्रं कथयति ।