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वसुदेवहिण्डी
३८९ को उसके माता-पिता ने, पैदा होते ही छोड़ दिया था, इसलिए उसने प्रविष्ट होकर अथर्ववेद की रचना की जिसमें मातृमेध और पितृमेध का उपदेश दिया।
नीलजलसालंभक में ऋषभस्वामी का चरित है। इस प्रसंग पर ऋषभ का जन्ममहोत्सव, राज्याभिषेक और उनकी प्रव्रज्या आदि का वर्णन है। उग्र, भोग, राजन्य, और नाग ये चार गण बताये हैं जो कोशल जनपद में राज्य करते थे। वृक्षों के संघर्षण से उत्पन्न अग्नि को देखकर ऋषभ ने अपनी प्रजा को बताया कि उसे भोजन पकाने, प्रकाश करने और जलाने के काम में ले सकते हैं। उन्होंने पाँच शिल्पों आदि का उपदेश दिया । गंधारा, मायंगा, रुक्खमूलिया और कालकेसा आदि विद्याओं का यहाँ उल्लेख है। विषयभोगों को दुखदायी प्रतिपादन करते हुए कौवे, गीदड़ आदि की लौकिक कथायें दी हैं। यदि कोई साधु अपने शरीर से ममत्व छोड़ देने के कारण औषध नहीं ग्रहण करना चाहे तो अभ्यंगन आदि से उसकी परिचर्या करने का विधान है।
सोमसिरिलंभन में आर्य-अनार्य वेदों की उत्पत्ति, ऋषभ का निर्वाण, बाहुबलि और भरत का युद्ध, नारद, पर्वत, और वसु का संबंध तथा वसुदेव के वेदाध्ययन का प्ररूपण है। भरत के समय से ब्राह्मण (माहण) और आर्य वेदों की उत्पत्ति हुई । ब्राह्मणों ने अग्निकुंड बनाये, भरत ने स्तूप स्थापित किये
और आदित्ययश आदि ने ब्राह्मणों को सूत्र ( यज्ञोपवीत) दिया । वेद 'सावयपण्णत्ति वेद' (श्रावकप्रज्ञप्ति वेद ) नाम से कहे जाते थे, आगे चल कर ये संक्षिप्त हो गये। पूर्व में मगध, दक्षिण में वरदाम और पश्चिम में प्रभास नामक तीर्थों का उल्लेख है।
वेदीय प्रश्नउपनिषद् (१-१) में भारद्वाज, सत्यकाम, गार्ग्य, आश्वलायन, भार्गव आदि ब्रह्मपरायण ऋषि पिप्पलाद के समीप उपस्थित होकर प्रश्न करते हैं, पिप्पलाद उन्हें उपदेश देते हैं।