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________________ ३७८ प्राकृत साहित्य का इतिहास की रचना की। ग्रन्थकार के अनुसार पादलिप्तसूरि ने तरंगवइकहा की रचना देशी वचनों में की थी। यह कथा विचित्र और विस्तृत थी, कहीं पर इसमें सुन्दर कुलक थे, कहीं गहन युगल और कहीं दुर्गम षट्कल | इस कथा को न कोई कहता था, न सुनता था और न पूछता ही था। यह विद्वानों के ही योग्य थी, साधारण जन इससे लाभ नहीं उठा सकते थे। पादलिप्त ने देशीपदों में जो गाथायें लिखीं उन्हें यहाँ संक्षिप्त करके लिखा गया जिससे कि इस कृति का सर्वथा उच्छेद न हो जाये। धनपाल नामक सेठ अपनी सेठानी सोमा के साथ राजगृह नगर में रहता था। उसके घर के पास की एक वसति में कुमारब्रह्मचारिणी सुव्रता नाम की गणिनी अपने शिष्य-परिवार के साथ ठहरी हुई थी। एक बार सुव्रता की शिष्या तरंगवती एक अन्य साध्वी को साथ लेकर मिक्षा के लिये सेठानी के घर आई। सेठानी तरंगवती के सौन्दर्य को देखकर बड़ी मुग्ध हुई। उसने तरंगवती से धर्मकथा सुनाने का अनुरोध किया। धर्मकथा श्रवण करने के पश्चात् उसका जीवन-वृत्तांत सुनने की इच्छा प्रकट की| तरंगवती ने कहना आरंभ किया "वत्स देश में कौशांबी नाम का नगर है। यह मध्यदेश की शोभा माना जाता है और जमुना के किनारे बसा हुआ है। वहाँ उदयन नाम का राजा अपनी रानी वासवदत्ता के साथ १. नेमिविज्ञानग्रंथमाला में विक्रम संवत् २००० में प्रकाशित । प्रोफेसर लॉयमन ने इसका जर्मन अनुवाद प्रकाशित किया है जिसका गुजराती भाषांतर नरसिंह भाई पटेल ने किया है, जो जैनसाहित्यसंशोधक में छपा है। पृथक् पुस्तक के रूप में यह अनुवाद बबलचंद केशवलाल मोदी की ओर से । सन् १९२४ में अहमदाबाद से प्रकाशित दुना है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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