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प्राकृत साहित्य का इतिहास बनाया | ११वीं सदी के सुप्रसिद्ध टीकाकार वादिवेताल शांतिसूरि की उत्तराध्ययन सूत्र पर लिखी हुई टीका पाइय (प्राकृत ) के नाम से ही कही जाती है। इसी टीका को आधार मान कर नेमिचन्द्रसूरि ने उत्तराध्ययन सूत्र पर सुखबोधा टीका की रचना की । आगे चलकर इन आचार्य ने और आम्रदेव सूरि ने आख्यानमणिकोष जैसा महत्वपूर्ण कथा-प्रन्थ लिखा जिसमें जैनधर्मसंबंधी चुनी हुई उत्कृष्ट कथा-कहानियों का समावेश किया गया । अनुयोगद्वार सूत्र के वृत्तिकार मलधारीहेमचन्द्र ने भवभावना और उपदेशमालाप्रकरण जैसे कथा-प्रन्थ लिखकर कथा-साहित्य के सर्जन में अभिवृद्धि की | अन्य भी अनेक आख्यान और कथानक इस काल में लिखे गये। इस प्रकार आगम-साहित्य में वर्णित धार्मिक और लौकिक कथाओं के आधार पर उत्तरकालीन प्राकृत कथा-साहित्य उत्तरोत्तर विकसित होकर वृद्धि को प्राप्त हो गया ।
कथाओं के रूप प्राकृत कथा-साहित्य का काल ईसवी सन् की लगभग चौथी शताब्दी से लेकर साधारणतया १६वीं-१७वीं शताब्दी तक चलता है। इसमें कथा, उपकथा, अंतर्कथा, आख्यान, आख्यायिका, उदाहरण, दृष्टान्त, वृत्तांत और चरित आदि के भेद से कथाओं के अनेक रूप दृष्टिगोचर होते हैं । कथाओं को मनोरंजक बनाने के लिये उनमें विविध संवाद, बुद्धि की परीक्षा, वाक्कौशल्य, प्रश्नोत्तर, उत्तर-प्रत्युत्तर, हेलिका, प्रहेलिका, समस्यापूर्ति, सुभाषित, सूक्ति, कहावत, तथा गीत, प्रगीत, विष्णुगीतिका, चर्चरी, गाथा, छंद आदि का उपयोग किया गया है। वसुदेवहिण्डी में आख्यायिका-पुस्तक, कथाविज्ञान और व्याख्यान का उल्लेख मिलता है। हरिभद्रसूरि ने समराइचकहा (पृ०२) में सामान्यरूप से अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा और संकीर्णकथा'
१. उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला में कथाओं के तीन भेद बताये हैं-धर्मकथा, अर्थकथा और कामकथा; फिर धर्मकथा को चार भागों