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प्राकृत साहित्य का इतिहास प्राप्त की। महावीर निर्वाण के १०० वर्ष पश्चात् कोई श्रुतकेवली उत्पन्न नहीं हुआ। आचार्य भद्रबाहु अष्टांगनिमित्त के वेत्ता थे। धरसेन मुनि चौदह पूर्वो के अन्तर्गत अग्रायणीपूर्व के कर्मप्रकति नामक अधिकार के वेत्ता थे। उन्होंने भूतबलि और पुष्पदन्त नाम के मुनियों को आगमों के कुछ अंश की शिक्षा दी । तत्पश्चात् उन्होंने छह अधिकारों में षट्खण्डागम की रचना की।
निजात्माष्टक इसमें केवल आठ गाथायें हैं | इसके कर्ता योगीन्द्रदेव हैं । योगीन्द्रदेव ने परमात्मप्रकाश और योगसार की अपभ्रंश में तथा अमृताशीति की संस्कृत में रचना की है। इनका समय विक्रम की १३वीं शताब्दी के पूर्व माना गया है।
छेदपिण्ड छेद का अर्थ प्रायश्चित्त होता है, इसे मलहरण, पापनाशन, शुद्धि, पुण्य, पवित्र और पावन नाम से भी कहा गया है। छेदपिण्ड में ३६२ गाथायें हैं जिनमें प्रमाद अथवा दर्प के कारण व्रत, समिति, मूलगुण, उत्तरगुण, तप, गण आदि सम्बन्धी पाप लगने पर साधु-साध्वियों को प्रायश्चित्त का विधान है। इस ग्रंथ के कर्ता इन्द्रनन्दि योगीन्द्र हैं जिनका समय विक्रम की . लगभग चौदहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है ।
भावत्रिभंगी भावत्रिभंगी को भावसंग्रह नाम से भी कहा गया है। इसके कर्ता श्रुतमुनि हैं । बालचन्द्र मुनि इनके दीक्षागुरु थे । श्रुतमुनि का
१. सिद्धांतसार, कल्लाणालोयणा, निजात्माष्टक, धम्मरसायण, और अंगपण्णत्ति सिद्धांससारादिसंग्रह में माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रंथ-माला, बम्बई से विक्रम संवत् १९७९ में प्रकाशित हुए हैं।
२. छेदपिण्ड और छेदशास्त्र माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रंथमाला द्वारा वि० सं० १९७८ में प्रकाशित प्रायश्चित्तसंग्रह में संगृहीत हैं।