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३१० प्राकृत साहित्य का इतिहास का उदाहरण दिया है। स्वाध्यायसम्बन्धी नियमों का प्रतिपादन किया है । गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुत केवली अथवा अभिन्नदशपूर्वी द्वारा कथित ग्रंथ को सूत्र कहा है। आराधनानियुक्ति, मरणविभक्ति, संग्रह (पंचसंग्रह आदि), स्तुति (देवागम आदि), प्रत्याख्यान, आवश्यक और धर्मकथा नाम के सूत्रों का यहाँ उल्लेख है । रात्रिभोजन के दोष बताये हैं । पिण्डशुद्धि अधिकार में मुनियों के आहार आदि ४६ दोषों का वर्णन है । आरम्भ में उद्गम, उत्पादन, एषण, संयोजन, प्रमाण, इंगाल, धूम और कारण दोषों का प्रतिपादन है । षडावश्यक अधिकार में सामयिक आदि छह आवश्यकों का नाम आदि निक्षेपों द्वारा प्ररूपण है। यहाँ कृतिकर्म और कायोत्सर्ग के दोषों का वर्णन है। अर्हत्, आचार्य आदि शब्दों की निरुक्ति बताई है। ऋषभदेव के शिष्य ऋजुस्वभावी और जड़ थे, तथा महावीर के शिष्य वक्र और जड़ थे, अतएव इन दोनों तीर्थंकरों ने छेदोपस्थापना का उपदेश दिया है, जबकि शेष तीर्थकरों ने सामायिक का प्रतिपादन किया है । पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त मुनि, अपसंज्ञ और मृगचरित्र नामक मुनियों को वंदन के अयोग्य बताया है। आलोचना के प्रकार बताये गये हैं | ऋषभदेव और महावीर के शिष्य सर्वनियमों के प्रतिक्रमण दण्डकों को बोलते थे, अन्य तीर्थंकरों के शिष्य नहीं । अनगार भावनाधिकार में लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान, शरीर संस्कारत्याग, वाक्य, तप और ध्यानसम्बन्धी दस शुद्धियों का पालन करनेवाले मुनि को मोक्ष की प्राप्ति बताई है। वाक्यशुद्धिनिरूपण में स्त्री, अर्थ, भक्त, खेट, कट, राज, चोर, जनपद, नसर और आकर नामक कथाओं का उल्लेख है। प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयमरूपी आरक्षकों द्वारा
१. मिलाइये उत्तराध्ययन (२३. २६) की निम्नलिखित गाथा के साथ
पुरिमा उज्जुजडा उ बंकजडा य पच्छिमा । मजिसमा उज्जुपनाउ तेण धम्मे दुहाकए ॥