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षट्खंडागम का महत्व षटखंडागम को सत्कर्मप्राभृत, खंडसिद्धान्त अथवा षट्खंडसिद्धान्त भी कहा गया है। भगवान महावीर का उपदेश उनके गणधर गौतम इन्द्रभूति ने द्वादशांग के रूप में निबद्ध किया। महावीर-निर्वाण के ६८३ वर्ष बाद तक अंगज्ञान की प्रवृत्ति जारी रही, तत्पश्चात् गुरु-शिष्य परंपरा से मौखिक रूप से दिया जाता हुआ यह उपदेश क्रमशः विलुप्त हो गया। इस द्वादशांग का कुछ अंश गिरिनगर (गिरनार, काठियावाड़) की चन्द्रगुफा में ध्यानमग्न आचारांग के पूर्ण ज्ञाता धरसेन आचार्य को स्मरण था। यह सोचकर कि कहीं श्रुतज्ञान का लोप न हो जाये धरसेन ने महिमा नगरी के मुनि-सम्मेलन को पत्र लिखा जिसके फलस्वरूप आंध्रदेश से पुष्पदन्त और भूतबलि नामक दो मुनि उनके पास पहुँच गये। धरसेन आचार्य ने अपने इन मेधावी शिष्यों को दृष्टिवाद के अन्तर्गत पूर्वो और विआहपन्नत्ति के कुछ अंशों की शिक्षा दी । धरसेन मंत्रशास्त्र के भी बड़े पण्डित थे। उन्होंने जोणिपाहुड' नामक ग्रन्थ कूष्मांडिनी देवी से प्राप्त कर उसे पुष्पदंत और भूतबलि के लिए लिखा था। . धरसेन का समय ईसवी सन् की पहली और दूसरी शताब्दी के बीच माना जाता है। आगे चलकर इन्हीं पुष्पदंत और भूतबलि ने षखंडागम की रचना की; पुष्पदंत ने १७७ सूत्रों में सत्प्ररूपणा और भूतबलि ने ६००० सूत्रों में शेष ग्रंथ लिखा | इस प्रकार चौदह पूर्वो के अंतर्गत द्वितीय अप्रायणी पूर्व के कर्मप्रकृति नामक अधिकार के आधार से पट्खंडागम के बहुभाग का उद्धार किया गया।
१. इसका परिचय आगे चलकर 'शास्त्रीय प्राकृत साहित्य' नाम के ग्यारहवें अध्याय में दिया गया है।