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२४४ प्राकृत साहित्य का इतिहास
"जैसे तुम्हारे मन में मेरा दर्शन मोह उत्पन्न करता है, वैसे ही तुम्हारा मेरे मन में करता है।"
"वह मेरी गोदी में सिर रख कर मर गई। यदि वह मेरी अनुपस्थिति में मरती तो कदाचित् देवताओं को भी उसके मरने का विश्वास न होता । तुम वह कैसे हो सकती हो ?" ___ कठिन परिस्थितियों में जैन श्रमण अपने संघ की किस प्रकार रक्षा करते थे, इसे समझाने के लिये कोंकण देश के एक साधु का आख्यान दिया है। एक बार, कोई आचार्य अपने शिष्य-समुदाय के साथ विहार करते हुए संध्या समय कोंकण की अटवी के पास पहुंचे। उस अटवी में सिंह आदि अनेक जंगली जानवर रहते थे। आचार्य ने अपने संघ की रक्षा के लिए कोंकण के एक साधु को रात्रि के समय पहरा देने के लिये नियुक्त कर दिया, बाकी सब साधु आराम से सो गये। प्रातःकाल पता लगा कि पहरा देनेवाले साधु ने तीन सिंहों को मार डाला है। आचार्य ने प्रायश्चित्त देकर साधु की शुद्धि कर ली । दूसरी जगह राजभय से आचार्य द्वारा अपने राजपुत्र साधुशिष्य को इमली के बीज उसके मुँह पर मल कर संयतियों के उपाश्रय में छिपा देने का उल्लेख है।। ___ यहाँ राजा सम्प्रति के राज्यशासन को चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार (२६८-२७३ ई० पू०) और अशोक (२७२-२३२ ई० पू०) तीनों की अपेक्षा श्रेष्ठ कहा है। इसलिये मौर्य वंश को यव के आकार का बताया है। जैसे यव दोनों ओर नीचा और मध्य में उठा हुआ होता है, उसी प्रकार सम्प्रति को मौर्यवंश का मध्यभाग कहा गया है। राजा सम्प्रति ने अनेक देशों में अपने राजकर्मचारी भेजकर २॥ देशों तथा आंध्र, द्रविड, महाराष्ट्र
और कुडुक्क (कुर्ग) आदि प्रत्यंत देशों को जैन साधुओं के विहार योग्य बनवाया था । कालकाचार्य की कथा विशेष निशीथचूर्णी में विस्तार से कही गई है। उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल