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४. प्राकृत साहित्य का इतिहास है। संस्कृत साहित्य में काश्मीर के पास के प्रदेश के लिये दरद का प्रयोग हुआ है।
भारतीय आर्यभाषायें भारतीय आर्यभाषाओं को तीन युगों में विभक्त किया जाता है। पहला युग प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का है जो लगभग १५०० ईसवी पूर्व से लेकर ५०० ईसवी पूर्व तक चलता है। इस युग में वेदों की भाषा, तत्कालीन बोलचाल की लोकभाषा पर आधारित संस्कृत महाकाव्यों की भाषा तथा परिष्कृत साहित्यिक संस्कृत का अन्तर्भाव होता है। दूसरा मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा का युग है जो ५०० ईसवी पूर्व से ११०० ईसवी सन् तक चलता है। यह युग प्राकृत भाषाओं का युग है जिसमें पालि तथा प्राकृत-जिसमें उस काल की सभी जनसाधारण की बोलियाँ आ जाती हैं जो कि ध्वनितत्त्व के परिवर्तन और व्याकरणसंबंधी भिन्नतायें प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं से जुदा एक नई भाषा को जन्म दे रही थीं-का अन्तर्भाव होता है। तीसरा युग आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का युग है जो ११०० ईसवी सन् से लगा कर आज तक चलता है। इसमें अपभ्रंश और उसके उपभेदों का समावेश होता है।
मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषायें मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषाओं को भी तीन भागों में विभक्त किया जाता है। प्रथम भाग में पालि, शिलालेखों की प्राकृत, प्राचीनतम जैन आगमों की अर्धमागधी, तथा अश्वघोष के नाटकों की प्राचीन प्राकृत का अन्तर्भाव होता है। दूसरे भाग में जैनों का धार्मिक और लौकिक साहित्य, क्लासिकल संस्कृत नाटकों की प्राकृत, हाल की सत्तसई, गुणाढ्य की बृहत्कथा, तथा प्राकृत के काव्य और व्याकरणों की मध्यकालीन प्राकृत आती है। तीसरे भाग में अपभ्रंश का समावेश होता है जो ईसवी सन् की पाँचवीं-छठी शताब्दी से आरंभ हो जाता