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२३० प्राकृत साहित्य का इतिहास इंगिनीमरण और पादोपगमन का लक्षण, गुप्ति-समिति का स्वरूप, ज्ञान-दशेन-चारित्र के अतिचार, उत्पादना का स्वरूप, ग्रहणैषणा का लक्षण, दान का स्वरूप आदि विषयों का प्रतिपादन किया है।
उत्तराध्ययनभाष्य शान्तिसूरि की पाइयटीका में भाष्य की कुछ ही गाथायें उपलब्ध होती हैं । जान पड़ता है कि अन्य भाष्यों की गाथाओं की भाँति इस भाष्य की गाथायें भी नियुक्ति के साथ मिश्रित हो गई हैं। इनमें बोटिक की उत्पत्ति तथा पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक नाम के जैन निम्रन्थ साधुओं के स्वरूप का प्रतिपादन है।
आवश्यकभाष्य आवश्यकसूत्र के ऊपर लघुभाष्य, महाभाध्य और विशेषावश्यक महाभाष्य लिखे गये हैं। इस सूत्र की नियुक्ति में १६२३ गाथायें हैं जब कि भाष्य में कुल २५३ गाथायें उपलब्ध होती हैं । यहाँ भी भाष्य और नियुक्ति की गाथाओं में गड़बड़ी हुई है। विशेषावश्यकभाष्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने लिखा है। कालिकश्रुत में चरण-करणानुयोग, ऋषिभाषित में धर्मकथानुयोग और दृष्टिवाद में द्रव्यानुयोग के कथन हैं। महाकल्पश्रुत आदि का इसी दृष्टिवाद से उद्धार हुआ बताया गया है । कौडिन्य के शिष्य अश्वमित्र को अनुप्रवादपूर्व के अन्तर्गत नैपुणिक वस्तु में पारङ्गत बताया है। निह्नवों और करकण्डू आदि प्रत्येकबुद्धों के जीवन का यहाँ विस्तार से वर्णन है । यदि साधु की वसति में अण्डा फूटकर गिर पड़ा हो तो स्वाध्याय का निषेध किया है।
दशवकालिकभाष्य दशवकालिकभाष्य की कुल ६३ गाथायें हरिभद्र की टीका के साथ दी हुई हैं। इनमें हेतुविशुद्धि, प्रत्यक्ष-परोक्ष तथा मूलगुण