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व्यवहारभाष्य
गये हैं-जहाँ अधिक कीचड़ न हो, द्वीन्द्रियादि जीवों की बहुलता न हो, प्रासुक भूमि हो, रहने योग्य दो-तीन बसतियाँ हों, गोरस की प्रचुरता हो, बहुत लोग रहते हो, कोई वैद्य हो, औषधियाँ मिलती हों, धान्य की प्रचुरता हो, राजा सम्यक् प्रकार से प्रजा को पालता हो, पाखंडी साधु कम रहते हों, भिक्षा सुलभ हो, और स्वाध्याय में कोई विघ्न न होता हो । जहाँ कुत्ते अधिक हों वहाँ साधु को बिहार करने का निषेध है। ___ मथुरा का जैनों में बड़ा माहात्म्य था । यहाँ स्तूपमह उत्सव मनाया जाता था । जैन-मान्यता के अनुसार मथुरा में देवताओं द्वारा रत्नमय स्तूप का निर्माण किया गया था, जिसे लेकर जैन
और बौद्धों में बहुत विवाद चला | भरुयकच्छ (भडौंच) और गुणसिल चैत्य (राजगिर से तीन मील की दूरी पर आधुनिक गुणावा) का भी बड़ा महत्त्व बताया गया है। देश-देश के लोगों के संबंध में चर्चा करते हुए कहा है कि मगध के निवासी किसी बात को इशारेमात्र से समझ लेते, जब कि कौशल के लोग उसे देखकर, और पांचाल के निवासी आधी बात कहने पर समझते थे, और दक्षिणापथ के वासी तो उसे तब तक न समझ पाते जब तक कि वह बात साफ-साफ कह न दी जाये। अन्यत्र आंध्र देशवासियों को क्रूर, महाराष्ट्रियों को वाचाल तथा कोशल के वासियों को पापी कहा गया है।
तीन प्रकार के हीन लोग गिनाये गये हैं-जातिजंगित, कर्मजुंगित और शिल्पजुंगित | जातिजुंगितों में पाण, डोंब, किणिक और श्वपच, कर्मजंगितों में पोषक, संवर (टीकाकार ने इसका शोधक अर्थ किया है), नट, लंख, व्याध, मछुए, रजक और वागुरिक, तथा शिल्पजुंगितों में पट्टकार और नापितों का उल्लेख है । आर्यरक्षित, आर्यकालक, राजा सातवाहन, प्रद्योत, मुरुण्ड, चाणक्य, चिलातपुत्र, अवन्तिसुकुमाल और
१. मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई में इस स्तूप के सम्बन्ध में बहुत सी बातों का पता लगता है।