________________
२०२ प्राकृत साहित्य का इतिहास गणधर ने उदक नामक निर्ग्रन्थ के प्रश्न करने पर नालन्दीय अध्ययन का प्रतिपादन किया था। ये उदक निग्रंथ पार्श्वनाथ के शिष्य (पासावञ्चिज्ज =पार्थापत्य) थे और इन्होंने श्रावक के व्रतों के संबंध में प्रश्न किया था। आर्द्रककुमार आर्द्रकपुर के निवासी थे तथा महावीर के समवशरण के अवसर पर उनका गोशालक, त्रिदंडी और हस्तितापसों के साथ वाद-विवाद हुआ | ऋषिभाषितसूत्र का यहाँ उल्लेख है | यहाँ पर गौतम (ग्रोव्रतिक), चंडीदेवक (चक्रधरप्रायाः-टीका ), वारिभद्रक (जलपान करनेवाले ), अग्निहोत्रवादी तथा जल को पवित्र माननेवाले साधुओं का नामोल्लेख है । क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादियों के भेद-प्रभेद गिनाये गये हैं।' पार्श्वस्थ, अवसन्न और कुशील नामक निर्ग्रन्थ साधुओं के साथ परिचय करने का निषेध है।
सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति भद्रबाहु ने सूर्यप्रज्ञप्ति के ऊपर नियुक्ति की रचना की थी, लेकिन टीकाकार मलयगिरि के कथनानुसार कलिकाल के दोष से यह नियुक्ति नष्ट हो गई है, इसलिये उन्होंने केवल सूत्रों की ही व्याख्या की है।
बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथनियुक्ति बृहत्कल्प और व्यवहारसूत्र के ऊपर भी भद्रबाहु ने नियुक्ति लिखी थी। बृहत्कल्पनियुक्ति संघदासगणि क्षमाश्रमण के लघुभाष्य की गाथाओं के साथ और व्यवहार की नियुक्ति व्यवहार भाष्य की गाथाओं के साथ मिश्रित हो गई है। निशीथ की नियुक्ति का आचारांगसूत्र का ही एक अध्ययन होने से आचारांगनियुक्ति में उसका समावेश हो जाता है। यह भी निशीथ भाष्य के साथ मिल गई है। ... १. देखिये जगदीशचन्द्र जैन, लाइफ इन ऐशिएण्ट इंडिया, पृष्ठ २१-५॥