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________________ २०१ आचारांगनियुक्ति २०१ (२) तापसफलोदएणं मि गिहं पविट्ठो, तत्थासणत्था पमया मि दिहा। वक्खित्तचित्तेण न सुठु नायं सकुंडलं वा वयणं न व त्ति ।। -फल के उदय से घर में प्रविष्ट करते समय मैंने वहाँ आसन पर बैठी हुई प्रमदा को देखा । विक्षिप्त चित्त होने के कारण मुझे यह पता नहीं लगा कि उसका मुख कुण्डल सहित था या नहीं ? (३) शौद्धोदनि का शिष्यमालाविहारंमि मएऽज्ज दिट्ठा, उवासिया कंचणभूसियंगी। वक्खित्तचित्तेण न सुटछु नायं, सकुंडलं वा वयणं न व ति॥ -मालाविहार के समय आज मैंने सुवर्ण से भूषित अंगवाली उपासिका को देखा | विक्षिप्त चित्त होने के कारण मुझे ठीक पता नहीं लगा कि उसका मुख कुंडल सहित था या नहीं ? (४) क्षुल्लकखंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स | किं मज्म एएण विचिंतिएण ? सकुंडलं वा वयणं न व त्ति ॥ -क्षमाशील, दमयुक्त, जितेन्द्रिय और अध्यात्म योग में दत्तचित्त मेरे द्वारा यह सोचने से क्या लाभ कि उसका मुख कुंडल से भूषित था या नहीं? सातवें उद्देश में मरण के भेद बताये गये हैं। तोसलि देश (आधुनिक धौलि, कटक जिले में) तोसलि नाम के आचार्य को किसी मरखनी भैंस ने मार दिया था। उसके बाद संल्लेखना का विवेचन किया है। द्वितीय श्रुतस्कंध में वल्गुमती और गौतम नाम के नैमित्तक की कथा आती है। सूत्रकृतांगनियुक्ति सूत्रकृतांगनियुक्ति में २०५ गाथायें हैं। राजगृह नगर के बाहर नालन्दा के समीप मनोरथ नाम के उद्यान में इन्द्रभूति
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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