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प्राकृत साहित्य का इतिहास
४ पिंडनिज्जुत्ति (पिंडनियुक्ति) पिंड का अर्थ है भोजन; इस ग्रंथ में पिंडनिरूपण, उद्गम दोष, उत्पादन दोष, एषणा दोष और ग्रास एषणा दोषों का प्ररूपण किया गया है। इसमें ६७१ गाथायें हैं, नियुक्ति और भाष्य की गाथायें परस्पर मिल गई हैं, इसलिये उनका अलग पता नहीं चलता। पिंडनियुक्ति के रचयिता भद्रबाहु हैं। दशवैकालिकसूत्र के पाँचवें अध्ययन का नाम पिंडैषणा है। इस अध्ययन पर लिखी गई नियुक्ति के विस्तृत हो जाने के कारण उसे पिंडनियुक्ति के नाम से एक अलग ही आगम स्वीकार कर लिया गया। इसमें साधुओं की आहार-विधि का वर्णन है। इसलिये इसकी गणना छेदसूत्रों में भी की जाती है । इस पर मलयगिरि की बृहवृत्ति और वीराचार्य की लघुवृत्ति मौजूद है।
पिंडनियुक्ति में आठ अधिकार हैं-उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम और कारण | पिंड के नौ भेद हैं। इनमें सीपी, शंख तथा सर्पदंश का शमन करने के लिये दीमकों के घर की मिट्टी, वमन को रोकने के लिये मक्खी की विष्टा, क्षुर आदि रखने के लिये चर्म, टूटी हुई हड्डी जोड़ने के लिये अस्थि, दाँत, नख, मार्गभ्रष्ट साधु को बुलाने के लिये सींग और कोढ़ आदि दूर करने के लिये गोमूत्र' आदि का उपयोग साधु के लिये बताया है। उद्गम दोष सोलह प्रकार का है ।
१. इस पर मलयगिरि की टीका देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार ग्रन्थमाला में सूरत से सन् १९१८ में प्रकाशित हुई है। भाष्य भी साथ में छपा है।
२. वट्टकेर के मूलाचार (६.१-६२) की गाथायें पिंडनियुक्ति की गाथाओं से मिलती हैं। ___३. मिलिन्दपण्ह (हिन्दी अनुवाद, पृ० २१२) में गोमूत्र-पान का विधान है।