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. दसवेयालिंय
१७९ फिर
उवसमेण हणे कोहं, माणं मदवया जिणे ।
मायं चज्जव-भावेणं, लोभं संतोसओ जिणे ॥ -क्रोध को उपशम से, मान को मृदुता से, माया को आर्जव से और लोभ को संतोष से जीते । स्त्रियों से बचने का उपदेश
जहा कुक्कुडपोयस्स निच्चं कुललओ भयं । एवं खु बंभचारिस्स इत्थी-विग्गहओ भयं ।। चित्त-भित्तिं न निझाए नारिं वा सुअलंकियं । भक्खरं पिव दट्टणं दिहिँ पडिसमाहरे । हत्थपायपडिच्छिन्नं कण्णवासविगप्पियं ।
अवि वाससई नारिं बंभयारी विवज्जए॥ -जैसे मुर्गी के बच्चे को बिलाड़ी से सदा भय रहता है, वैसे ही ब्रह्मचारी को स्त्रियों के शरीर से भयभीत रहना चाहिये । स्त्रियों के चित्रों से शोभित भित्ति अथवा अलंकारों से सुशोभित नारी की ओर न देखे । यदि उस ओर दृष्टि पड़ भी जाये तो जिस प्रकार हम सूर्य को देखकर दृष्टि संकुचित कर लेते हैं, वैसे ही भिक्षु को भी अपनी दृष्टि संकुचित कर लेनी चाहिये। जिसके हाथ-पाँव और नाक-कान कटे हुए हों अथवा जो सौ वर्ष की बुढ़िया हो, ऐसी नारी से भी भिक्षु को दूर ही रहना चाहिये।
विनय समाधि अध्ययन में चार उद्देश हैं। यहाँ विनय को धर्म का मूल कहा है। सभिक्षु नाम के अध्ययन में अच्छे भिक्षु के लक्षण बताये हैं । अन्त में दो चूलिकायें हैं, पहली रतिवाक्य और दूसरी विविक्तचर्या।।
1. उत्तराध्ययन के पन्द्रहवें अध्ययन का नाम और विषय आदि भी यही है।