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दसवेयालिय
१७७ मांस' (पुद्गल) और बहुत कांटे वाली मछली (अणिमिस) ग्रहण न करे। भोजन करते समय यदि हड्डी, काँटा, तृण, काष्ठ, कंकर आदि मुँह में आ जाय तो उन्हें मुँह से न थूक कर हाथ में लेकर एक ओर रख दे । भिक्षु के लिये मदिरापान का निषेध बताया है । यत्नपूर्वक आचरण के लिये इतिवृत्तक (१२, पृ० १०) में उल्लेख है___ यतं चरे यतं तिढे यतं अच्छे यतं सये।
यतं सम्मिआये भिक्खू यतमेनं पसारये ॥ १. हरिभद्रसूरि ने इस पर टीका (पृ. ३५६) करते हुए लिखा है
अयं किल कालाथपेक्षया ग्रहगे प्रतिषेधः; अन्ये स्वभिदधति-वनस्पत्यधिकारात्तथाविधफलाभिधाने ।
चूर्णीकार ने लिखा है
मंसं वा गेइ कप्पइ साहूणं, कंचि कालं देसं पडुच इमं सुत्तमागतं (दशवकालिकचूर्णी, पृ० १८४)।
इस संबंध में आचारांग के टीकाकार ने कहा है
बहुअष्टियेण मंसेण वा बहुकंटएण मच्छेण वा उवनिमंतिजा.."एयपगारं निग्धोसं सुच्चा "नो खलु मे कप्पअभिकखसि में दाउं जावइयं तावइयं पुग्गलं दलयाहि मा य अहियाई-अर्थात् पुदल (मांस) ही दो, अस्थि नहीं । फिर भी यदि कोई अस्थियाँ ही पात्र में डाल दे तो मांस-मत्स्य का भक्षण कर अस्थियों को एकान्त में रख दे। टीका-एवं मांससूनमपि नेयं । अस्य चोपदानं क्वचिल्लूताधुपशमनार्थ सद्वैद्योपदेशतो बाद्यपरिभोगेन स्वेदादिना ज्ञानाद्युपकारकत्वात्फलवदाष्टं-भाचारांग (२), १, १०, २८१ पृ० ३२३ । भववादुस्सग्गियं (अपवाद भौत्सर्गिक)-'बहु अट्टियं पोग्गलं भणिमिसं वा बहुकप्पं ।' एवं अववादतो गिण्हतो भणाइ-मंसं दल, मा अढ़ियं-विशेषनिशीथचूर्णी (साइक्लोस्टाइल्ड प्रति), १६ पृ० १०३४, आवश्यकचूर्णी, २, पृ० २०२।
२. ज्ञातृधर्मकथा (५) में शैलक ऋषि का मद्यशन द्वारा रोग शान्त होने का उल्लेख ऊपर आ चुका है। बृहत्कल्पभाष्य (९५४-५६) में ग्लान अवस्था में वैद्य के उपदेशपूर्वक मद्य (विकट) ग्रहण करने. का उल्लेख है।
१२ प्रा०सा०