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प्राकृत साहित्य का इतिहास - -जो काम-भोगों का निवारण नहीं करता, वह संकल्पविकल्प के अधीन होकर पद-पद पर स्खलित होता है, फिर वह श्रामण्य को कैसे पा सकता है ?
वत्थगंधमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य ।
अच्छन्दा जे न भुंजंति न से चाइ त्ति वुञ्चइ ॥ -वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री और शयन-इनका जो स्वेच्छा से भोग नहीं करता, वह त्यागी है।
समाए पेहाए परिव्वयन्तो। सिया मणो निस्सरई बहिद्धा॥ न सा महं नो वि अहं पि तीसे ।
इञ्चेव ताओ विणएज्ज रागं ।। -सम भावना से संयम का पालन करते हुए कदाचित् मन इधर-उधर भटक जाये तो उस समय यही विचार करना चाहिये कि न वह मेरी है और न मैं उसका ।
क्षुल्लिकाचार-कथा नामक तीसरे अध्ययन में निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिये उदिष्ट भोजन, स्नान, गंध, दन्तधावन, राजपिंड, छत्रधारण, वमन, विरेचन आदि का निषेध है । षड़जीवनीकाय अध्ययन में छह जीवनिकायों को मन, वचन, काय और कृत, . कारित, अनुमोदन से हानि पहुँचाने का निषेध किया है। फिर सर्व प्राणातिपात-विरमण, मृषावाद-विरमण, अदत्तादान-विरमण, मैथुन-विरमण, परिग्रह-विरमण और रात्रिभोजन-विरमण का उल्लेख है । पाँचवें अध्ययन में दो उद्देश्य हैं । यहाँ बताया है कि भिक्षाचर्या के लिये जाते समय और भिक्षाग्रहण करते समय साधु किन बातों का ध्यान रक्खे ।' बहुत हड्डी (अस्थि ) वाला ___१. कोसिय जातक ( २२६ ) में भी भिनु के लिये अकालगमन का निषेध है
काले निक्खमणा साधु नाकाले साधुनिक्खमो । . अकालेन हि निक्खम्म एककंपि बहूजनो॥