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'दससुयक्बंध
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स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, माला, अलंकार आदि से नास्तिकवादी की निर्वृति नहीं होती। यहाँ बन्धन के अनेक प्रकार बताये हैं | दसवीं प्रतिमा में क्षुरमुंडन कराने अथवा शिखा धारण करने का विधान है। सातवीं दशा में १२ प्रकार की भिक्षुप्रतिमा का वर्णन है । भावप्रतिमा पाँच प्रकार की है-समाधि, उपधान, विवेक, पडिलीण और एकल्लविहार | इनके भेद-प्रभेदों का वर्णन किया गया है ।
आठवें अध्ययन में श्रमण भगवान् महावीर का च्यवन, जन्म, संहरण, दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष का विस्तृत वर्णन है । कहीं काव्यमय भाषा का प्रयोग भी हुआ है। इसी का दूसरा नाम पज्जोसणाकप्प अथवा कल्पसूत्र है ।' जिनप्रभ, धर्मसागर, विनयविजय, समयसुन्दर, रत्नसागर, संघविजय, लक्ष्मीवल्लभ आदि अनेक आचार्यों ने इस पर टीकायें लिखी हैं। इसे पर्यूषण के दिनों में साधु लोग अपने व्याख्यानों में पढ़ते हैं । महावीर पहले माह्णकुंडग्गाम के ऋषभदत्त की पत्नी देवानंदा ब्राह्मणी के गर्भ में अवतरित हुए, लेकिन क्योंकि अरहंत, चक्रवर्ती, बलदेव तथा वासुदेव भिक्षुक और ब्राह्मण आदि कुलों में जन्म धारण नहीं
१. समय सुन्दरमणि की टीकासहित सन् १९३९ में बम्बई से प्रकाशित | हर्मन जैकोबी द्वारा लिप्ज़िग से सन् १८७९ में सम्पादित ; जैकोबी ने सेक्रेड बुक्स ऑन दि ईस्ट के २२वें भाग में अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है । सन् १९५८ में राजकोट से हिन्दी-गुजराती अनुवाद सहित इसका संस्करण निकला है ।
२. देखिये, जैन ग्रन्थावलि, श्री जैन श्वेतांबर, कान्फरेन्स, मुंबई, वि० सं० १९६५, पृष्ठ ४८-५२ ।
३. छेदग्रन्थों में इसका अन्तर्भाव होने के कारण पहले इस सूत्र को सभा में नहीं पढ़ा जाता था। बाद में वि० सं० ५२३ में आनन्दपुर के राजा ध्रुवसेन के पुत्र की मृत्यु हो जाने से इसे व्याख्यानों में पढ़ा जाने लगा ।