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१३६ प्राकृत साहित्य का इतिहास वर्जित कहा गया है। काष्ठ, उँगली अथवा शलाका आदि से अंगादान (पुरुषेन्द्रिय) के संचालन का निषेध किया है। अंगादान को तेल, घी, नवनीत आदि से मर्दन करने, शीत अथवा उष्ण जल से प्रक्षालन करने तथा ऊपर की त्वचा को हटा कर उसे सूंघने आदि का निषेध है। (इस संबंध में भाष्यकार ने सिंह, आशीविष, व्याघ्र और अजगर आदि के दृष्टान्तों द्वारा बताया है कि जैसे सोते हुए सिंह आदि को जगा देने से वे जीवन का अन्त कर देते हैं, उसी प्रकार अंगादान के संचालित करने से तीव्र मोह का उदय होता है जिससे चारित्र भ्रष्ट हो. जाता है)। तत्पश्चात् शुक्रपात और सुगंधित पुष्प आदि सूंघने का निषेध है। पदमार्ग (सोपान ) और दगवीणिय ( पतनाला ), छींका, रज्जु, चिलिमिलि' (कनात ) आदि के निर्माण को वर्जित कहा है। कैंची (पिप्पलग), नखछेदक, कर्णशोधक, पात्र, दण्ड, यष्टि, अवलेखनिका (वर्षाऋतु में कीचड़ हटाने का बाँस का बना उपकरण ) तथा बाँस की सुई ( वेणूसूइय) के सुधरवाने का निषेध है। वस्त्र में थेगली (पडियाणिया) लगाना वर्जित है। (यहाँ भाष्यकार ने जंगिय, भंगिय, सणय, पोत्तय, खोमिय और तिरीडपट्ट नामके वस्त्रों का उल्लेख किया है)। वस्त्र को बिना विधि के सीने का निषेध
१. चुल्लवग्ग (६,२,६) इसे चिलिमिका कहा गया है। . २. जंगिय अथवा जांधिक ऊन का बना वस्त्र होता था। भंगिय का उल्लेख विनयवस्तु के मूल सर्वास्तिवाद (पृष्ठ ९२ ) में किया गया है। भाग वृक्ष से तैयार किया हुआ वस्त्र कुमाऊँ (उत्तरप्रदेश) जिले में अभी भी मिलता है । बृहत्कल्पभाष्य (२-३६६१ ) में रुई से बने कपड़े को योत्तग कहा है। सन के बने कपड़े को खोमिय कहते हैं। तिरीडवह सम्भवतः सिर पर बाँधने की एक प्रकार की पगड़ी थी। देखिये स्थानांगसूत्र १७०; बृहत्कल्पभाष्य ४, १०१७; विशेष के लिये देखिये जगदीशचन्द्र जैन, लाइफ इन ऐशियेण्ट इण्डिया, पृष्ठ १२८-२९।।