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११८ प्राकृत साहित्य का इतिहास के प्रश्नोत्तरों के रूप में किया गया है। बीच-बीच में अन्य मान्यताओं का उल्लेख है। इस पर मलयगिरि ने टीका लिखी है । श्रीअमोलक ऋषि ने इसका हिन्दी अनुवाद किया है जो हैदराबाद से प्रकाशित हुआ है। स्थानांगसूत्र में चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति को अंगबाह्य श्रुत में गिना गया है।
निरयावलिया अथवा कप्पिया ( कल्पिका ) निरवलिया श्रुतस्कंध में पाँच उपांग हैं-१. निरयावलिया अथवा कप्पिया ( कल्पिका), २. कप्पवडंसिया (कल्पावतंसिका), ३. पुफिया (पुष्पिका), ४. पुप्फचूलिया (पुष्पचूलिका ), ५. वण्हिदसा (वृष्णिदशा)।' श्रीचन्द्रसूरि ने इन पर टीका लिखी है। पहले ये पाँचों उपांग निरयावलिसूत्र (निरय+ आवलिनरक की आवलिका का जिसमें वर्णन हो) के नाम से कहे जाते थे, लेकिन आगे चलकर १२ उपांगों और १२ अंगों का संबंध जोड़ने के लिये इन्हें अलग-अलग गिना जाने लगा। राजगृह में विहार करते समय सुधर्मा नामक गणधर ने अपने शिष्य आर्य जम्बू के प्रश्नों का समाधान करने के लिये इन उपांगों का प्रतिपादन किया।
निरयावलिया सूत्र में दस अध्ययन हैं। पहले अध्ययन में कूणिक (अजातशत्रु ) का जन्म, कूणिक का अपने पिता श्रेणिक (बिंबसार) को जेल में डालकर स्वयं राज्यसिंहासन पर बैठना, श्रेणिक की आत्महत्या, कूणिक का अपने छोटे भाई वेहल्लकुमार से सेचनक हाथी लौटाने के लिये अनुरोध, तथा कूणिक और वैशाली के गणराजा चेटक के युद्ध का वर्णन है-२
१. प्रोफेसर गोपाणी और चौकसी द्वारा संपादित, १९३८ में अहम'दाबाद से प्रकाशित । . २. दीघनिकाय के महापरिनिम्बाणसुत्त में वजियों के विरुद्ध भजातशत्रु के युद्ध का वर्णन है।