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१०४ प्राकृत साहित्य का इतिहास अभिमानी, चंचल इन्द्रियोंवाली और मन्द बुद्धिवाली सब स्त्रियों को दृष्टिवाद (भूयावाय) पढ़ने का निषेध किया है।'
द्वादश उपांग वैदिक ग्रंथों में पुराण, न्याय और धर्मशास्त्र को उपांग कहा है। चार वेदों के भी अंग और उपांग होते हैं। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, निरुक्त और ज्योतिष ये छह अंग हैं, तथा पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्मशास्त्र उपांग | बारह अंगों की भाँति बारह उपांगों का उल्लेख भी प्राचीन आगम ग्रंथों में उपलब्ध नहीं होता। नंदीसूत्र (४४) में कालिक और उत्कालिक रूप में ही उपांगों का उल्लेख मिलता है। अंगों की रचना गणधरों ने की है और उपांगों की स्थविरों ने, इसलिये भी अंगों और उपांगों का कोई संबंधविशेष सिद्ध नहीं होता। यद्यपि कुछ आचार्यों ने अंगों और उपांगों का संबंध जोड़ने का प्रयत्न किया है, लेकिन विषय आदि की दृष्टि से इनमें कोई संबंध प्रतीत नहीं होता।
उववाइय (ओववाइय-औपपातिक ) उपपात अर्थात् जन्म-देव-नारकियों के जन्म; अथवा सिद्धि
जवासाद्ध गमन का इस उपांग में वर्णन होने से इसे औपपातिक कहा है। विन्टरनीज़ के अनुसार इसे औपपातिक न कहकर उप
१. प्रश्न किया गया है कि यदि दृष्टिवाद में सब कुछ अन्तर्गत हो जाता है तो फिर उसी का प्ररूपण किया जाना चाहिये, अन्य आगमों का नहीं । उत्तर में कहा है कि दुर्बुद्धि, अल्पायु तथा स्त्रियों आदि को लक्ष्य करके अन्य आगमों का प्ररूपण किया गया है। दृष्टिवाद की भाँति अरुणोपपात और निशीथ आदि के अध्ययन की भी स्त्रियों को मनाई है। देखिये आवश्यकचूर्णी १, पृ० ३५, बृहस्कल्पभाष्य १,१४६, पृ०४६ ।
२. इस ग्रंथ का पहला संस्करण कलकत्ते से सन् १८८० में प्रकाशित हुभा था । फिर भागमोदय समिति, भावनगर ने इसे प्रकाशित