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कुछ स्पष्ट बातें ...
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... शांति प्रदायक कांतिपूर्ण, धर्भ के रहस्य का जानकार भिक्षु तो
गांव या चगर में मवेश करने के पश्चात्, अन्नपान की लालसा रक्खे बिना, रति-अरति दूर करके, संघ में हो अथवा अकेला हो पर कोर संयम में स्थिर रहकर अपनी अन्तिम एकाकी असहाय अवस्था की भावना करता हुआ विचरे । वह स्वयं ही (शास्त्र से) समझ कर अथवा गुरु के पास सुनकर लोगों को हितकर उपदेश दे ।
परन्तु किसी के भाव को तर्क से जाने बिना ही, चाहे जैसे .. 'शुद्र और अश्रद्धालु मनुष्य को उपदेश न देने लगे । मनुष्य के कर्म
और भाव को समझ कर उसके दुष्ट स्वभाव को दूर करने का प्रयत्न को क्योंकि वे तो भयानक विषयों में डूबे हुए होते हैं । वह अपनी पूजा-प्रशंसा की कामना न करे और प्रिय अप्रिय की इच्छा भी न
करे । इस प्रकार सब अनर्थों का त्याग करके, मन से भी श्राकुल अथवा ... क्रुद्ध न होकर सब प्राणियों के प्रति हिंसा का त्याग करके, जीवन-मरण . . की इच्छा न करते हुए वह संसारचक्र से मुक्त होने तक विचरे । [१८, २८-२३]
~ ऐसा श्री सुधर्मास्वामी ने कहा "
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