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प्राय संवर
निर्जरा, बन्ध और मोक्ष
रहे हुए 'जीव-जीव, लोक- श्रलोक, पुराय- पाप, का विवेचन सहायक हो सकता है | मेरे लिये सदा से यह एक आश्चर्य की बात रही हैं, और जो कोड़े अपने प्राचीन धर्मग्रन्थों का निष्पक्ष और तत्त्वग्राही दृष्टि से श्रवलोकन करेंगे तो उन्हें भी श्राचर्य हुए बिना न रहेगा कि जैन,
और ब्राह्मण अर्थात् वैदिक धर्म के अनुयायियों के बीच इतना विरोध क्यों ? ये तीनों वास्तव में एक ही धर्म की तीन शाखा है । तत्वज्ञान के दर्शन में विरोध हो तो कोई श्राश्चर्य नहीं, क्योंकि तत्त्व एक ऐसा विशाल पदार्थ है कि जिज्ञासु जिसके एक ग्रंश ( Part ) को कृत्स्न ( Whole ) मान कर "धगजन्याय" के अनुसार उसी को सच्चा समझकर आपस में झगड़ते वैटे, यह सर्वधा स्वाभाविक है । किन्तु इस प्रकार का परस्पर विरोध तो उन धर्मों के प्रगन्तर दर्शनों में भी क्या नहीं है ? नैतिक सिद्धान्त और आध्यात्मिक उन्नति के श्राचारों में तो तीनों धर्मो में मूलतः इतनी एकता है कि परम्पर उनमें कोई विरोध ही नहीं समझ पड़ता ।
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अपने एक वाक्य का स्मरण यहां कराने की में धृष्टता करता हूं | "जैन बने बिना ब्राह्मण नहीं हो पाता और ब्राह्मण बने बिना जैन नहीं हो पाता " । तात्पर्य यह कि जैन धर्म का तत्व इन्द्रियों और मनोवृत्तियों को जीतने में है, और ब्राह्मण धर्म का तत्व विश्व की विशालता श्रात्मा में उतारने में है। तो फिर इन्द्रियों और मनोवृत्तियों को जीते विना ग्रात्मा में विशालता कैसे आ सकती है ? और ग्रात्मा को विशाल बनाये बिना इन्द्रियों और मनोवृत्तियों को कैसे जीता जा सकता हैं ? यही कारण है कि इस ग्रन्थ में ' ब्राह्मण' शब्द के सच्चे अर्थ में और 'ब्राह्मण की ऊंची भावना को व्यक्त करने के लिये श्री महावीर स्वामी को • मतिमान ब्राह्मण महावीर , ( प्रथम खण्ड के
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